विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्य: ।। 18 ।।

 

शब्दार्थ :- विराम, ( सभी वृत्तियों के रुकने का ) प्रत्यय, ( जो कारण अर्थात पर वैराग्य है ) अभ्यास पूर्व : , ( उसके बार – बार अभ्यास या प्रयास करने से ) संस्कार शेष:, ( चित्त के संस्कार नाममात्र ही बचते हैं । ) अन्य, ( ऐसी दूसरी अवस्था असम्प्रज्ञात समाधि की है । )

 

सूत्रार्थ :-  पर वैराग्य  के पालन करने से सभी चित्त वृत्तियों  का निरोध हो जाता है । इस प्रकार चित्त वृत्तियों के निरोध  का बार – बार अभ्यास  करने से चित्त  के संस्कार नाममात्र  ही बचते हैं । ऐसी सम्प्रज्ञात समाधि  से दूसरी अवस्था को असम्प्रज्ञात समाधि  कहते हैं ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में असम्प्रज्ञात समाधि  के स्वरूप को बताया गया है । जब पर वैराग्य  द्वारा साधक की सभी तृष्णाएँ  ( इच्छाएँ ) समाप्त हो जाती हैं । तब उस अवस्था को विरामप्रत्यय कहते हैं । विराम – प्रत्यय ही सभी वृत्तियों के निरोध  होने का कारण है । इस विराम – प्रत्यय का बार – बार अभ्यास करने से साधक व्युत्थान संस्कारों  को रोक देता है ।

 

इनके रुकने से वह असम्प्रज्ञात समाधि  को प्राप्त होता है । जिस प्रकार अग्नि  में तपाने से स्वर्ण  ( सोने ) धातु के सभी दोष  ( मल ) समाप्त हो जाते हैं । और वह शुद्ध धातु  ( सोना ) हो जाती है ।

 

ठीक इसी प्रकार विराम – प्रत्यय के बार – बार अभ्यास द्वारा साधक अपने सभी व्युत्थान संस्कारों  को समाप्त कर देता है । तब इस असम्प्रज्ञात समाधि  में निरुद्ध अवस्था के संस्कार शेष रहते हैं । असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में निरोध के संस्कार बीज दग्ध * ( जले ) हुए होते हैं । इस प्रकार यह निर्बीज समाधि  ही असम्प्रज्ञात समाधि  कहलाती है ।

 

संस्कार बीज समाप्त होने के कारण इसे निर्बीज  कहा गया है । अर्थात जिस अवस्था में संस्कार बीज रूप में समाप्त हो जाएं । वह निर्बीज अवस्था होती है । यहाँ पर असम्प्रज्ञात समाधि  और निर्बीज समाधि  को एक ही समझा जाए ।

 

(*) नोट :- दग्ध बीज  वह बीज होते हैं जिन बीजों को अग्नि  में जला  दिया जाता है । जब किसी बीज को अग्नि में जला दिया जाता है तब उस बीज में कभी भी अंकुर  ( पौधा ) नही आ सकता । इसलिए कहा गया है कि निरोध अवस्था में संस्कार दग्ध बीज  हो जाते हैं । तभी यह निर्बीज समाधि कहलाती है ।

 

यह असम्प्रज्ञात समाधि  दो प्रकार की होती है । एक उपायप्रत्यय  और दूसरी भवप्रत्यय । अगले सूत्रों में इनका वर्णन किया गया है ।

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  1. ?Prnam Aacharya ji ! .. this beautiful knowledge is adorable ..we are obliged to your great work ..dhanyavad Sriman Aacharya ji ?

  2. Pranaam Sir! It’s a treat to read your explanation in the morning…… reading it inner peace comes and it becomes a good day.

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