तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो   दृढभूमि : ।। 14 ।।

 

शब्दार्थ :-  तु , ( लेकिन ) , ( वह अभ्यास ) दीर्घकाल , ( लम्बे समय तक ) नैरन्तर्य , ( बिना किसी रुकावट के अर्थात लगातार ) सत्कार , ( आदरपूर्वक ) आसेवित: ,  ( सेवन किए जाने पर ) दृढ , ( मजबूत )  भूमि ( अवस्था या स्थिति वाला होता है । )

 

 सूत्रार्थ :-  उस अभ्यास को लम्बे समय तक, लगातार, आदरपूर्वक  ( श्रद्धा से ) पालन करने से वह मजबूत स्थिति  वाला ( पक्का )  बनता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में अभ्यास को मजबूत करने के उपायों की चर्चा की गई है । जब कोई अभ्यासी किसी भी लक्ष्य  को प्राप्त करने के लिए अभ्यास करता है । तब उसे कुछ ऐसे सिद्धान्तों  ( नियमों ) के पालन की आवश्यकता होती है । जो उसके अभ्यास को मजबूत  बना सकें ।  जिससे अभ्यासी को लक्ष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई महसूस  न हो ।

 

अभ्यास को मजबूत बनाने के उपाय :-

 

महर्षि पतंजलि ने अभ्यास को मजबूत बनाने के लिए मुख्य रूप से तीन नियमों के पालन करने की बात कही है । जो कि निम्न हैं :-

 

  1. दीर्घकाल :- दीर्घकाल का अर्थ है किसी काम को लम्बे समय तक करते रहना । इसको हम दो अर्थों में समझ सकते हैं । एक तो हम अभ्यास को प्रतिदिन कई घंटों तक करें । और दूसरा उस अभ्यास को हम वर्षों तक  करें । इस प्रकार किए गए अभ्यास से सफलता शीघ्र  ( जल्दी ) ही मिलती है ।

 

  1. नैरन्तर्य :- नैरन्तर्य का अर्थ है किसी कार्य को निरन्तर अर्थात बिना किसी रुकावट के लगातार  करना । किसी भी अभ्यास को पक्का करने के लिए उसको निरन्तर  करते रहना जरूरी है । जब हम किसी अभ्यास को रुक – रुक कर करते हैं ।  तब उस अभ्यास से हमें सफलता नही मिलती । इसलिए यदि अभ्यास में सफलता प्राप्त करनी है तो उस अभ्यास का निरन्तर  होना आवश्यक है ।

 

  1. सत्कार :- सत्कार का अर्थ है किसी कार्य को आदरपूर्वक, सम्मान के साथ और श्रद्धा भाव से युक्त होकर करना । जब किसी अभ्यास को बिना आदर , सम्मान  व श्रद्धा  के साथ किया जाता है । तब उस अभ्यास से हमें सफलता प्राप्त नही हो सकती । क्योंकि कोई भी कार्य तभी सफल होता है । जब कर्ता  और कर्म  में जुड़ाव  होता है । और कर्ता व कर्म में जुड़ाव के लिए श्रद्धा  का होना जरूरी है ।  इसलिए आपके अभ्यास में श्रद्धा भाव  होना अति आवश्यक है।

 

कर्ता और कर्म :-

 

कर्ता और कर्म में जुड़ाव होने पर उस कार्य के सफल  होने की संभावना सौ प्रतिशत  हो जाती है ।  अब प्रश्न उठता है कि कर्ता और कर्म में ये जुड़ाव कैसे आए  ? इसका उत्तर उपर्युक्त सूत्र में ही दिया गया है ।  कर्ता और कर्म में जुड़ाव करने के लिए कार्य को पूरे आदरभाव, सम्मान  व श्रद्धापूर्वक  करना चाहिए । तभी यह जुड़ाव सम्भव है ।

 

इसीलिए किसी भी अभ्यास को मजबूत बनाने के लिए योगसूत्र में दीर्घकाल, नैरन्तर्य  व सत्कार पूर्वक अभ्यास के पालन करने की बात कही है ।

 

उदाहरण स्वरूप  जब कोई खिलाड़ी  अपने खेल का अभ्यास लम्बे समय तक, निरन्तरता  और पूरी श्रद्धा  के साथ करता है । तब वह अपने खेल में पूरी महारत  ( विशेषज्ञता ) प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वह एक श्रेष्ठ खिलाड़ी  बनता है ।

 

ठीक इसी प्रकार कोई विद्यार्थी अपनी परीक्षा की तैयारी को लम्बे समय तक, निरन्तरता  और श्रद्धा  के साथ करता  है । तब वह उस अभ्यास के द्वारा अपने परीक्षा परिणाम  में अव्वल  स्थान प्राप्त करता है ।

 

अतः इन सिद्धांतों  या नियमों  का पालन करके कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता  है । यह नियम केवल योग का अभ्यास  करने वाले योगाभ्यासी  के लिए ही नही हैं । बल्कि सभी क्षेत्रों में कार्य करने वाले उन सभी लोगों के लिए है । जो अपने – अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं ।

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  1. प्रणाम आचार्य जी । योग माग॔ पर अग्रसर होने के लिए यह सुन्दर प्रेरणा हमे देने के लिए आपको बहुत धन्यवाद आचार्य जी ।?

  2. Pranaam Sir, very well explained concept. In your lectures on yoga Sutra you have already explained it and this article is well designed concise to the point explanation. Very helpful article.

  3. ॐ गुरुदेव*
    आपने बहुत ही अच्छी व्याख्या की है ।
    आपके द्वारा किए योगसूत्रों की व्याख्या का कोई जवाब नहीं ।
    अति उत्तम ।

  4. Pranam, Maharshi Patanjali ke Yog sutra sahi or saral jivan jine ki kaala sikhate hai. Or Yog ka marg hi sahi marg hai apne lakhya ko paane ke liye…

  5. आपका बहुत बहुत धन्यवाद, जो आपने ऋषियों की बात website के माध्यम से हम तक पहुंचाई, ईश्वर आपके उद्देश्य और पाठक के उद्देश्य को पूरा करें। ओ३म्

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