विपरीतकरणी वर्णन   यत्किञ्चित् स्त्रवते चन्द्रादमृतं दिव्यरूपिण: । तत् सर्वं ग्रसते सूर्यस्तेन पिण्डो जरायुत: ।। 77 ।।   भावार्थ :- चन्द्र मण्डल से जिस दिव्य अमृत रस का स्त्राव ( टपकता ) होता है । उसका निरन्तर स्त्राव होने से उस अमृत रस को सूर्य मण्डल भस्म कर देता है । जिसके कारण मनुष्य में

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Hatha Pradipika Ch. 3 [77-82]

वज्रोली मुद्रा वर्णन   स्वेच्छया वर्तमानोऽपि योगोक्तैर्नियमैर्विना । वज्रोलीं यो विजानाति स योगी सिद्धिभाजनम् ।। 83 ।।   भावार्थ :- जो भी साधक वज्रोली क्रिया को करना जानता है । वह बिना योग साधना के नियमों का पालन किए भी अपनी मनमर्जी से जीवन को जीते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है

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Hatha Pradipika Ch. 3 [83-86]

नारीभगे पतद् बिन्दुमभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत् । चलितं च निजं बिन्दुमूर्ध्वाकृष्य रक्षयेत् ।। 87 ।।   भावार्थ :- सम्भोग के समय जब पुरुष के वीर्य का स्खलन अर्थात् वीर्यपात आरम्भ होकर स्त्री की योनि में वीर्य गिरता है । उस समय पुरुष को गिरते हुए वीर्य को ऊपर की ओर आकर्षित करके ( मूलबन्ध द्वारा ) वीर्य की रक्षा

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Hatha Pradipika Ch. 3 [87-91]

सहजोली वर्णन   सहजोलीश्चामरोलीर्वज्रोल्या एव भेदत: । जले सुभस्म निक्षिप्य दग्धगोमयसम्भवम् ।। 92 ।। वज्रोली मैथुनादूर्ध्वं स्त्रीपुंसो: स्वाङ्गले पनम् । आसीनयो: सुखेनैव मुक्तव्यापारयो: क्षणात् ।। 93 ।।   भावार्थ :- सहजोली व अमरोली वज्रोली मुद्रा के ही दो प्रकार हैं । इनमें सहजोली क्रिया को बताते हुए कहा है कि योगी साधक अथवा साधिका दोनों

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Hatha Pradipika Ch. 3 [92-103]

शक्तिचालन मुद्रा वर्णन   कुटिलाङ्गी कुण्डलिनी भुजङ्गी शक्तिरीश्वरी । कुण्डल्यरुन्धती चैते शब्दा: पर्यायवाचका: ।। 104 ।।   भावार्थ :- कुटिलाङ्गी, कुण्डलिनी, भुजङ्गी, शक्ति, ईश्वरी, कुण्डली और अरुन्धती इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ होता है अर्थात् यह सभी एक ही शब्द ( कुण्डलिनी ) के पर्यायवाची हैं । जहाँ- जहाँ पर भी इन शब्दों

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Hatha Pradipika Ch. 3 [104-111]

कुण्डलिनी को जगाने की विधि   अवस्थिता चैव फणावती सा प्रातश्च सायं प्रहरार्धमात्रम् । प्रपूर्ये सूर्यात् परिधानयुक्त्या प्रगृह्य नित्यं परिचालनीया ।। 112 ।।   भावार्थ :- मूलाधार में स्थित उस सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति को आधे पहर ( डेढ़ घण्टे ) तक दायीं नासिका से पूरक ( श्वास ग्रहण करते हुए ) करते हुए विधिपूर्वक

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Hatha Pradipika Ch. 3 [112-118]

शक्ति चालन मुद्रा के लाभ   तस्मात् सञ्चालयेन्नित्यं सुख सुप्ता मरुन्धतीम् । तस्या: सञ्चालनेनैव योगी रोगै: प्रमुच्यते ।। 119 ।।   भावार्थ :- इसलिए योगी साधक को नियमित रूप से उस सोई हुई अरुन्धती अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति का संचालन ( उसको चलाना ) करना चाहिए । केवल उसके संचालन मात्र से ही साधक के सभी

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Hatha Pradipika Ch. 3 [119-125]