दस यम

 

अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं क्षमा धृति: ।

दयार्जवं मिताहार: शौचं चैव यमा: दश ।।

 

भावार्थ :- इस श्लोक में यम के दस भेदों  ( प्रकार ) का वर्णन किया गया है । जो इस प्रकार हैं :- 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य, 5. क्षमा, 6. धृति, 7. दया, 8. आर्जवं, 9. मिताहार, 10. शौच ।

इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-

  1. अहिंसा :- किसी भी जीव अथवा प्राणी को मन, वचन व कर्म से किसी भी प्रकार का कष्ट या पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा कहलाती है ।
  2. सत्य :- जैसा देखा, सुना व अनुभव किया गया है । उसे वैसा ही बताना । उसमें किसी भी प्रकार की मिलावट न करना । अथवा किसी को किसी भी प्रकार का धोखा न देना ।
  3. अस्तेय :- किसी दूसरे की वस्तु अथवा पदार्थ को बिना उसकी अनुमति के न लेना अस्तेय कहलाता है । अर्थात चोरी न करना ।
  4. ब्रह्मचर्य :- इन्द्रियों का संयम करना और चित्त को ब्रह्म में लगाना ब्रह्मचर्य कहलाता है ।
  5. क्षमा :- किसी द्वारा गलती किए जाने पर उसे माफ करने की भावना क्षमा कहलाती है ।
  6. धृति :- विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखना धृति कहलाती है । अर्थात संकट के समय में भी अपने आप को संतुलित रखना ।
  7. दया :- सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखना दया कहलाती है । किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भावना न रखना ।
  8. आर्जवं :- आर्जवं का अर्थ होता है कोमलता । साधक को नियमों के पालन में कठोरता का त्याग करके कोमलता का पालन करना चाहिए ।
  9. मिताहार :- मिताहार का अर्थ है आहार में संयम का पालन करना । योगी को योग साधना के अनुकूल आहार ही लेना चाहिए । मिताहार का विस्तृत वर्णन किया जाएगा ।
  10. शौच :- शौच का अर्थ होता है शुद्धि । यहाँ पर शारीरिक व मानसिक शुद्धि की बात कही गई है ।

 

 

 दस नियम

 

तप: सन्तोष मास्तिक्यं दान मीश्चरपूजनम् ।

सिद्धान्तवाक्यश्रवणं ह्री: मतिश्च तपोहुतम् ।

नियमा: दश सम्प्रोक्ता: योगशास्त्रविशारदै: ।। 18 ।।

 

भावार्थ :- अब दस नियमों का वर्णन किया गया है । जो इस प्रकार हैं :- 1. तप, 2. सन्तोष, 3. आस्तिक्य, 4. दान, 5. ईश्वर- पूजन, 6. सिद्धान्त श्रवण, 7. लज्जा, 8. तप, 9. मति, 10. हवन ।

इन सभी नियमों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-

  1. तप :- सभी प्रकार के द्वन्द्वों अर्थात भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी, मान- अपमान, लाभ- हानि आदि को सहन करना या अपने आप को सम अवस्था में रखना तप कहलाता है ।
  2. सन्तोष :- घनघोर अथवा पूर्ण रूप से पुरुषार्थ या मेहनत करने के बाद जो फल मिले उसी में सन्तुष्ट रहना सन्तोष कहलाता है ।
  3. आस्तिक्य :- आस्तिक्य का अर्थ होता है ईश्वर में आस्था रखना । इसे दूसरे अर्थ में आस्तिक भी कहा जाता है ।
  4. दान :- जरूरतमंद को उसकी जरूरत की वस्तु देना दान कहलाता है । वह दान धन, वस्त्र, किताबें, व खाद्य सामग्री आदि कुछ भी हो सकता है ।
  5. ईश्वर पूजन :- अपने आराध्य देवता की पूजा अर्चना करने को ईश्वर पूजन कहते हैं ।
  6. सिद्धान्त श्रवण :- सिद्धान्त वाक्यों को सुनना सिद्धान्त श्रवण कहते हैं । इसमें मोक्ष कारक ग्रन्थ व गुरु उपदेश शामिल होते हैं । इसका दूसरा नाम स्वाध्याय भी है ।
  7. लज्जा :- लज्जा का अर्थ होता है शर्म करना । जिन कार्यों को करने में लज्जा का अनुभव होता हो योगी को उन अहितकारी कार्यों को करने से बचना चाहिए ।
  8. मति :- मति का अर्थ होता है बुद्धि । बुद्धि ही वह पदार्थ है जिससे द्वारा हमें सही व गलत के बीच का फर्क पता चलता है ।
  9. तप :- यहाँ पर इस सूत्र में तप का दोबारा प्रयोग किया गया है । तप का सामान्य अर्थ तो वही होता है जिसका वर्णन हम पहले कर चुके हैं ।

 

विशेष :- यहाँ पर तप के सम्बंध में दो बातें हो सकती हैं । एक तो यह कि यहाँ पर तप का अर्थ योग साधना के दौरान की जाने वाली तपस्या हो सकता है । दूसरा यह कि हो सकता है यहाँ पर तप की बजाय दम शब्द का प्रयोग किया गया हो । दम का अर्थ है अपनी इन्द्रियों का दमन करना । चूंकि श्लोक में तप शब्द का ही प्रयोग किया गया है । तो यहाँ पर तप का अर्थ तपस्या से भी लिया जा सकता है । यह मेरा स्वयं का मत है ।

  1. हवन :- हवन का अर्थ है यज्ञ करना । साधक के सभी कर्म यज्ञीय होने चाहिए । जिस प्रकार हवन सभी के हित के लिए किया जाता है । उसी प्रकार योगी के सभी कर्म उत्तम होने चाहिए ।

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  1. Om namashkar sir jo ap ke sabhi lacher bahot hi acche hai sab me bahot dhradhta se ap ne samjaya hai. Hame leval 3 ki exam me bahot madad mil jayegi par ushse bhi mahatv purn bat yah hai ki ham ishme se kuch accha shikh shakenge.
    Om sir

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