मिताहार
सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जित: ।
भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहार: स उच्यते ।। 60 ।।
भावार्थ :- पूरी तरह से चिकने अर्थात घी आदि से युक्त व मीठे खाद्य पदार्थों ( आहार ) को, पेट का एक चौथाई ( ¼ ) भाग खाली छोड़कर व आत्मा की प्रसन्नता के लिए ग्रहण किये जाने वाले आहार को मिताहार कहते हैं ।
विशेष :- इस श्लोक में मिताहार की चर्चा की गई है । मिताहार का अर्थ है आहार का संयम । सभी योग आचार्यों व ऋषियों ने योगी के लिए मिताहार का ही निर्देश किया है । योग में सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक सभी योग साधकों को मिताहार का पालन अवश्य करना चाहिए । बिना मिताहार का पालन किए योग मार्ग में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है । इसलिए सभी योगियों ने मिताहार की उपयोगिता की चर्चा अपने ग्रन्थों में की है ।
योग में अपथ्य आहार
कट्वम्लतीक्ष्णलवणोष्णहरीतशाकं— सौवीरतैलतिलसर्षपमद्यमत्स्यान् ।
अजादिमांसदधितक्रकुलत्थकोल—
पिण्याक हिङ्गुलशुनाद्यमपथ्यमाहु: ।। 61 ।।
भावार्थ :- अपथ्य या निषेध आहार :- अपथ्य आहार वह होता है जो साधना में बाधा उत्पन्न करता है । हठप्रदीपिका में अपथ्य अथवा निषेध आहार में निम्न खाद्य पदार्थों को रखा गया है – कड़वा जैसे करेला, खट्टा जैसे ईमली, तीखा अर्थात कसैला, ज्यादा नमकीन, उष्ण जैसे जायफल, ( जो कि पित्त को बढ़ाता है ) हरी पत्तियों वाले शाक अर्थात हरे पत्ते वाली सब्जियाँ, कांजी, सरसो व तिल आदि का तेल, शराब, मछली व बकरी आदि पशुओं का मांस, दही, मट्ठा ( छाछ ) अर्थात लस्सी, कुलथी, कोल अर्थात काली मिर्च, खली, हींग व लहसुन आदि खाद्य पदार्थों का सेवन योग मार्ग में निषेध माना गया है । अतः इन पदार्थों को अपथ्य कहा गया है ।
भोजनमहितं विद्यात् पुनरप्युष्णीकृतं रुक्षम् ।
अतिलवणमम्लयुक्तं कदशनं शाकोत्कटं वर्ज्यम् ।। 62 ।।
भावार्थ :- इसके अतिरिक्त दोबारा से गर्म किया हुआ, ज्यादा रूखा अर्थात सूखा भोजन, अधिक नमक वाला, अधिक खट्टा व दूषित अर्थात खराब हुआ भोजन आदि त्यागने योग्य भोजन हैं । इसलिए इस प्रकार के भोजन को योग साधना के दौरान अहितकर या वर्जित कहा है ।
वह्नि स्त्रीपथिसेवानामादौवर्जनमाचरेत् ।। 63 ।।
भावार्थ :- इसके अलावा योग साधना को शुरू करने के समय में अर्थात प्रारम्भिक समय में योगी के लिए अग्नि का सेवन, स्त्री का साथ व लम्बी दूरी की यात्रा वर्जित होती हैं । अर्थात योगी को इन सबके सेवन से बचना चाहिए ।
विशेष :- योग साधना को शुरू करने के समय साधक को कुछ ज्यादा ही सावधानियों का पालन करना पड़ता है । अतः यहाँ पर अग्नि सेवन, स्त्री संग व लम्बी यात्रा से दूरी बनाने की बात कही गई है ।
योगी के लिए पथ्य आहार
गोधूमशालियवषष्टिकशोभनान्नाम्
क्षीराज्यखण्ड नवनीतसितामधूनि ।
शुण्ठीपटोलकफलादिकपञ्चशाकं
मुद्गादिदिव्यमुदकं च यमीन्द्रपथ्यम् ।। 64 ।।
भावार्थ :- पथ्य या हितकर आहार :- पथ्य आहार वह होता है जिसे शरीर शीघ्रता से पचा लेता है । अर्थात शीघ्र हजम होने वाले भोजन को पथ्य कहते हैं । हठप्रदीपिका के अनुसार निम्न खाद्य पदार्थों को पथ्य आहार की श्रेणी में रखा है – गेहूँ, पुराना चावल, जौ, साठी चावल, ( चावल की अन्य किस्म ) क्षीर, ( खीर ) दूध, घी, खाण्ड, मक्खन, शक्कर, शहद, सोंठ, पाँच प्रकार के शाक अर्थात सब्जियाँ ( परवल, लौकी अर्थात घीया, तुरई अर्थात तोरी, कुष्मांड, खीरा ) मूंग व मसूर की दालें व वर्षा का जल अर्थात बारिश का शुद्ध पानी आदि को पथ्य आहार अर्थात शीघ्र पचने वाला आहार कहा है ।
पुष्टं सुमधुरं स्निग्धं गव्यं धातु प्रपोषणम् ।
मनोऽभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत् ।। 65 ।।
भावार्थ :- इसके अलावा योगी साधक को पुष्टिकारक, ( जो भोजन शरीर को मजबूत करे ) मधुर स्वाद वाला, ( जिसका स्वाद मीठा व मधुर हो ) स्निग्ध, ( जो घी आदि से बना हुआ हो ) गव्यम, ( गाय के घी व दूध से बने खाद्य पदार्थ ) धातुओं को मजबूत बनाने वाला भोजन, व मन को अच्छा लगने वाले अनुकूल भोजन को ही ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार का आहार पथ्य व हितकारी होता है ।
Thanku sir ??
Thanks again sir
धन्यवाद।
बहुत सुन्दर आचार्य जी, आपके द्वारा हम योगर्थियो तकनीकी माध्यम से निरंतर मार्गदर्शन मिल रहा है…
ऊॅ सर जी ! आप के मार्ग दर्शन से अच्छी जानकारियाॅ मिल रही है ।
धन्यवाद sir
Very good explained easy to understand