बाधक तत्त्व

अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रह: ।

जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिर्योगो विनश्यति ।। 15 ।।

 

भावार्थ :- योग साधना काल में कुछ ऐसे अवगुण या कुछ बुरी आदतें ऐसी होती हैं जो साधक को योगमार्ग में आगे बढ़ने से रोकती हैं । ऐसे अवगुणों या बुरी आदतों को योग में बाधक तत्त्व कहते हैं । अर्थात जो साधक को योग मार्ग में अग्रसर होने में किसी प्रकार की हानि पहुँचाए उन्हें बाधक तत्त्व कहते हैं । हठप्रदीपिका के इस श्लोक में स्वामी स्वात्माराम ने छः ( 6 ) बाधक तत्त्व बताए हैं –

 

  1. अत्याहार / अत्यधिक भोजन करना
  2. प्रयास / अत्यधिक परिश्रम करना
  3. प्रजल्प / अत्यधिक बोलना
  4. नियमाग्रह / अत्यधिक आग्रह करवाना
  5. जनसंग / अत्यधिक लोगों से सम्पर्क
  6. लौल्यं / चंचलता, मन का अत्यधिक चंचल होना ।

 

  1. अत्याहार / अत्यधिक भोजन करना :- अत्याहार अर्थात अधिक भोजन करने से योग मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है । अत्याहार को स्वामी स्वात्माराम ने पहला बाधक तत्त्व माना है । अधिक भोजन करने से व्यक्ति का पाचन संस्थान ( Digestive system ) खराब हो जाता है । जिससे उसे अपच व मोटापा आदि पाचन तंत्र के रोग हो जाते हैं । दूसरा ज्यादा भोजन करने से व्यक्ति को आलस्य आता है । साथ ही अत्यधिक भोजन करने से भोजन के प्रति राग हो जाता है । राग की उत्पत्ति होने से साधक योग साधना में अग्रसर नही हो पाता है । अतः अत्याहार योग मार्ग में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्त्व है । एक योगी साधक के साथ – साथ अन्य सामान्य व्यक्तियों को भी अत्यधिक भोजन करने से बचना चाहिए । अत्यधिक भोजन न करना सभी के लिए हितकर है ।

 

  1. प्रयास / अत्यधिक परिश्रम करना :- अत्यधिक प्रयास या अत्यधिक परिश्रम करने से भी योग मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है । अत्यधिक परिश्रम का अर्थ ज्यादा शारीरिक श्रम अथवा मेहनत करना होता है । ज्यादा शारीरिक श्रम करने से शरीर की शक्ति ज्यादा मात्रा में व्यय ( खर्च ) होती है । और यदि शरीर की शक्ति किसी अन्य कार्य में ज्यादा खर्च होती है तो योग साधना के समय साधक में आलस्य आना शुरू हो जाता है । जिससे वह पूरी ऊर्जा के साथ योग साधना नही कर पाता है । इसलिए एक योगी को अनावश्यक शारीरिक श्रम से बचना चाहिए ।

 

  1. प्रजल्प / अत्यधिक बोलना :- प्रजल्प अर्थात अत्यधिक बोलना भी योग मार्ग में बाधा उत्पन्न करने वाला बाधक तत्त्व है । जो व्यक्ति सारा दिन बक – बक ( बकवास ) करते रहते हैं । उनका मन कभी भी स्थिर नही रह सकता । साथ ही अत्यधिक बोलने से शरीर की ऊर्जा भी ज्यादा खर्च होती है । साधक की जो ऊर्जा योग साधना में लगनी चाहिए वह अत्यधिक बोलने में व्यर्थ हो जाती है । इसके अलावा अधिक बोलने से व्यक्ति की बात की महत्ता ( उपयोगिता ) भी कम हो जाती है । इसलिए योगी साधक बेकार की बकवास से बचना चाहिए ।

 

 

  1. नियमाग्रह / अत्यधिक आग्रह करवाना :- वह सिद्धान्त या दिशा- निर्देश जिनका पालन किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है वह नियम कहलाते हैं । इन आवश्यक दिशा- निर्देशों के पालन से ही हम अपने विशेष प्रयोजन सिद्ध करते हैं । लेकिन कुछ व्यक्ति इन नियमों का पालन करने में कुछ ज्यादा ही कठोर हो जाते हैं । वह यह मानने लगते हैं कि इसी नियम का पालन किया जाना चाहिए । अन्य किसी नियम का नहीं । इससे वह एक ही नियम के प्रति ज्यादा कठोर हो जाते हैं । इसे एक प्रकार का हठ भी कह सकते हैं । जिस प्रकार एक बच्चा किसी खिलौने के लिए हठ कर लेता है । और उसके न मिलने की स्थिति में वह काफी उत्पात भी मचाता है और रुष्ट भी हो जाता है । अतः एक योग साधक को इस प्रकार के हठ अर्थात नियमाग्रह से बचना चाहिए ।

 

  1. जनसंग / अत्यधिक लोगों से सम्पर्क :- जनसंग अर्थात ज्यादा व्यक्तियों के सम्पर्क में रहने से भी योग मार्ग में सिद्धि प्राप्त नही होती है । जनसंग को योग मार्ग में बाधक माना है । इसलिए एक योग साधक को जनसंग का परित्याग अर्थात करना चाहिए । जो योगी साधक ज्यादा लोगों के सम्पर्क में रहता है । वह योग मार्ग में आगे नही बढ़ पाता है । क्योंकि सभी व्यक्ति अलग- अलग स्वभाव वाले होते हैं । उनमें कुछ सात्विक प्रवृत्ति के होते हैं तो कुछ राजसिक व तामसिक प्रवृत्ति के होते हैं । सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने में कोई नुकसान नही होता है । लेकिन राजसिक व तामसिक प्रवृत्ति के लोगों से सम्पर्क रखने से साधना में विघ्न पड़ता है । इसलिए योगी को अत्यधिक लोगों के सम्पर्क से बचना चाहिए । योग मार्ग में सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है ।

 

  1. लौल्यं / चंचलता, मन का अत्यधिक चंचल होना :- मन की चंचल प्रवृत्ति को भी योग में बाधक माना गया है । जब व्यक्ति का मन चंचल होता है तो उसकी किसी भी कार्य में एकाग्रता नही बन पाती है । और एकाग्रता के अभाव से वह अपने किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक नही कर पाता है । किसी भी कार्य की सफलता और असफलता के बीच एकाग्रता का ही अन्तर होता है । किसी कार्य को करते हुए यदि मन एकाग्र है तो वह कार्य निश्चित तौर से सफल होता है । और कार्य को करते हुए यदि मन में एकाग्रता नही है अथवा एकाग्रता का अभाव है तो व्यक्ति उस में कार्य सफल नही हो पाएगा । मन की चंचलता योग मार्ग का बहुत बड़ा बाधक तत्त्व है । इसलिए योग की सिद्धि के लिए मन की चंचलता को दूर करना अति आवश्यक है ।

 

 

  साधक तत्त्व

उत्साहात् साहसाद्धैर्यात्ततत्त्वज्ञानाच्च निश्चयात् ।

जनसङ्गपरित्यगात् षड्भिर्योग: प्रसिद्धयति ।। 16 ।।

भावार्थ :- योग साधना काल में कुछ गुण या कुछ अच्छी आदतें ऐसी होती हैं जो साधक को योगमार्ग में आगे बढ़ने के लिए सहायता प्रदान करती हैं । ऐसे गुणों या अच्छी आदतों को योग में साधक तत्त्व कहते हैं । अर्थात जो साधक को योग मार्ग में अग्रसर करने में किसी भी प्रकार का लाभ पहुँचाए उन्हें साधक तत्त्व कहते हैं । इस श्लोक में छः ( 6 ) साधक तत्त्व बताएं हैं –

 

  1. उत्साह
  2. साहस
  3. धैर्य
  4. तत्त्व ज्ञान
  5. दृढ़ निश्चय
  6. जनसंग परित्याग

 

  1. उत्साह :- स्वामी स्वात्माराम ने उत्साह को प्रथम साधक तत्त्व माना है । उत्साह का अर्थ है हिम्मत या होंसला । उत्साह सबसे महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि उत्साह ही वह साधन है जिससे बाकी के सभी साधनों का पालन किया किया जा सकता है । उत्साह के न होने से कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नही कर सकता । उत्साह है तो आप पहाड़ की चोटी को छू सकते हैं और यदि उत्साह नही है तो आपका जमीन पर चलना भी कठिन है ।

जब कोई भी साधक उत्साह अर्थात होंसले से साधना की शुरुआत करता है तो वह साधना में निरन्तर सफलता प्राप्त करता है ।

 

  1. साहस :- साहस को दूसरा साधक तत्त्व माना गया है । साहस के बिना आज तक कोई भी महान कार्य पूरा नही हुआ है । उत्साह से ही साहस का जन्म होता है । साधना में साहस का होना अनिवार्य है । साहस के साथ साधना करने से विश्वास बढ़ता है । अतः योग साधना में साहस का होना अति आवश्यक है ।

 

  1. धैर्य :- धैर्य का अर्थ है सब्र करना या उतावलापन का न होना । धैर्य की आवश्यकता केवल योग साधना में ही नही बल्कि जिन्दगी के हर मोड़ पर होती है । बिना धैर्य के कोई भी व्यक्ति जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त नही कर सकता । धैर्य वो चाबी है जो सभी बन्द दरवाजों को खोलती है । बहुत बार देखने में आता है कि जब नया योग साधक योग साधना प्रारम्भ करते ही यह चाहता है कि मुझे अति शीघ्र सफलता मिल जाए । यह जो उतावलापन है यह योग मार्ग में बाधक है । प्रत्येक साधक को सब्र के साथ योग साधना में अग्रसर होना चाहिए । कहा भी है कि “सब्र का फल मीठा होता है” । अतः धैर्य भी योग साधना की सिद्धि में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

 

  1. तत्त्व ज्ञान :- तत्त्व ज्ञान का अर्थ है किसी भी वस्तु या पदार्थ का यथार्थ अर्थात सही ज्ञान होना । जब तक हमें किसी भी वस्तु या पदार्थ का सही – सही ज्ञान या उसकी वास्तविक जानकारी नही होती है । तब तक हम उनके स्वरूप को नही समझ सकते । इसलिए किसी भी मार्ग में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे पहले हमें उस पदार्थ या वस्तु की सही जानकारी होनी चाहिए । यदि हमें किसी पदार्थ का वास्तविक ज्ञान नही है तो वह एक प्रकार का अस्मिता नामक क्लेश कहलाता है । और क्लेश हमें योग मार्ग से दूर हटाने का कार्य करते हैं । इसलिए योग साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए तत्त्व ज्ञान का होना अनिवार्य है ।

 

  1. दृढ़ निश्चय :- दृढ़ निश्चय एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही व्यक्ति में आत्म विश्वास भर जाता है । दृढ़ निश्चय का अर्थ है किसी भी कार्य को करने के लिए संकल्पित होना । जब हम किसी काम को करने के लिए वचन बद्ध होना या एक ही निश्चय के प्रति समर्पित होना दृढ़ निश्चय कहलाता है । बहुत सारे व्यक्तियों का मानना है कि एक मार्ग में यदि सफलता न मिले तो दूसरा विकल्प अपना लेना चाहिए । इस प्रकार कार्य के न होने की अवस्था में दूसरे विकल्प को अपनाना आपके दृढ़ निश्चय और विश्वास की कमी को दर्शाता है । जब व्यक्ति किसी विकल्प को अपनाता है तो उसका कोई भी कार्य पूर्ण नही हो पाता । इसलिए कार्य की सफलता के लिए दृढ़ निश्चय का होना अति आवश्यक है । सफलता और असफलता के बीच कुछ है तो वह दृढ़ निश्चय ही है । जीवन में दृढ़ निश्चय का होना आपकी सफलता को पक्का करता है । अतः योग साधक को दृढ़ निश्चय वाला होना चाहिए ।

 

6. जनसंग परित्याग :- जनसंग का अर्थ है बहुत सारे व्यक्तियों से सम्पर्क बनाना । जनसंग को योग मार्ग में बाधक माना है । इसलिए एक योग साधक को जनसंग का परित्याग अर्थात करना चाहिए । जो योगी साधक ज्यादा लोगों के सम्पर्क में रहता है । वह योग मार्ग में आगे नही बढ़ पाता है । क्योंकि सभी व्यक्ति अलग- अलग स्वभाव वाले होते हैं । उनमें कुछ सात्विक प्रवृत्ति के होते हैं तो कुछ राजसिक व तामसिक प्रवृत्ति के होते हैं । सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने में कोई नुकसान नही होता है । लेकिन राजसिक व तामसिक प्रवृत्ति के लोगों से सम्पर्क रखने से साधना में विघ्न पड़ता है । इसलिए योगी को अत्यधिक लोगों के सम्पर्क से बचना चाहिए । योग मार्ग में सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    योग साधक एवं बाधक तत्त्वों का अति सुंदर वर्णन
    किया है आपने ,अस्तु आपको हृदय से आभार।

  2. काफी अच्छा प्रयास है भगवान आपको सफल बनायें, ऐसी मेरी कामना है। मेरा सुझाब यही है कि इन सबका व्यावहारिक पक्ष उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करेंगे तो विषय और स्पष्ट हो पायेगा। कैसे कोई योग अभ्यासी इनको अपना कर आधुनिक समय में योग मार्ग की बाधाओं को दूर कर निरनंतर आगे बढ़ सकता है, इसमे सहायता मिल सके।
    ऐसे तो कई पुस्तकें उपलब्ध है, आपकी पुस्तक में क्या खास है, क्या नयापन है क्या सरलता है वो प्रस्तुत करेंगे तो बहुत अच्छा होगा।

  3. Pranam

    Bhavna Rana

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