या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। 69 ।।
व्याख्या :- जो सामान्य जनों ( लोगों ) के लिए रात्रि है । जिसमें वह विश्राम करते हैं । संयमी ( ज्ञानवान ) व्यक्ति अथवा योगी के लिए वह दिन की तरह होती है अर्थात् जिस समय सभी अज्ञानी व्यक्ति अचेत अवस्था में होते हैं, योगी उस समय पूरी तरह से चेतना में होता है । जिस समय सभी प्राणी जागते हैं अर्थात् जिस समय अज्ञानी व्यक्ति भोग – विलास में लिप्त होते हैं । योगी जन उस समय उन सभी विषय – भोगों से विमुख अर्थात् अचेतन अवस्था में होते हैं ।
विशेष :- इस श्लोक में रात्रि व दिन का अर्थ चेतन और अचेतन अवस्था से लिया गया है । जिस समय सभी अज्ञानी लोग मूढ़ अवस्था में आकर अचेतन अवस्था में होते हैं । उस समय सभी योगी जन चेतना में होते हैं । यहाँ पर इसका अर्थ ब्रह्ममुहूर्त का समय अर्थात् प्रातःकाल समझना भी उचित होगा । क्योंकि रात्रि के चौथे पहर की शुरूआत को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं । उस समय जो सोता रहता है उसे अज्ञानी कहा जाता है और जो उस समय जागता है उसे ज्ञानी अथवा योगी कहते हैं । इसके अलावा जब दिनभर में व्यक्ति विषयों में प्रवृत्त रहते हैं । उस समय योगी इन सबसे अलग अर्थात् अचेत होता है ।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।। 70 ।।
व्याख्या :- जब जल से भरी नदियाँ अनन्त जल के साथ समुद्र में प्रवेश करती हैं अर्थात् जब पानी की विशाल मात्रा लिए हुए अनेकों नदियाँ समुद्र में गिरती हैं तो वह समुद्र को बिना विचलित किये चुपचाप उसमें समा जाती हैं । ठीक उसी प्रकार संसार के अनेकों विषय – वासनाएं भी एक संयमी साधक या ज्ञानी व्यक्ति में बिना किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये ही उसमें चुपचाप समा जाती हैं । वह सभी कामनाएं मिलकर भी संयमी व्यक्ति को अपने वश में नहीं कर पाती हैं । इस प्रकार के साधक को ही शान्ति रूपी परम् सुख की प्राप्ति होती है न की कामनाओं की इच्छा रखने वाले कमी को ।
विशेष :- यहाँ पर नदियों का उदाहरण देकर श्रीकृष्ण ने इस श्लोक को समझने में बहुत ही सरल कर दिया है । बरसात के समय पर जब सभी नदियाँ अपने चरम पर होती हैं , तो वह चारों ओर भयानक तबाही मचाती हुई अनेकों पेड़ – पौधों व नगरों के अवशिष्ट पदार्थों को अपने साथ बहाती हुई आगे बढ़ती हैं । लेकिन जैसे ही वह समुद्र में गिरती है तो समुद्र को वह बिलकुल भी प्रभावित नहीं करती । बल्कि चुपचाप उसमें विलीन हो जाती है । ठीक यही हाल वासनाओं अथवा कामनाओं का होता है । जब वह किसी संयमी पुरुष के अन्दर प्रवेश करती हैं, तो वह अपना प्रभाव दिखाए बिना ही निष्क्रिय हो जाती हैं ।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।। 71 ।।
व्याख्या :- जो भी व्यक्ति अपनी सभी आसक्ति युक्त कामनाओं का त्याग कर देता है और बिना किसी इच्छा के समभाव से युक्त आचरण ( व्यवहार ) करता है । जिसका सुख के साथ किसी प्रकार का मोह नहीं है और जो अहम भाव से पूरी तरह मुक्त हो चुका है अर्थात् जो ममता व अहंकार से रहित है । वास्तव में उसी पुरुष को शान्ति की प्राप्ति होती है ।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।। 72 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! इसी अवस्था को ब्रह्म अवस्था ( ज्ञान की उच्च अवस्था ) कहते हैं । जिसको पाकर मनुष्य किसी भी प्रकार के मोह में नहीं फँसता है अर्थात् यह अवस्था पूरी तरह से मोह से रहित होती है । इसी अवस्था में स्थित रहकर मनुष्य जीवन के बाद अर्थात् मृत्यु के समय निर्वाण ( मोक्ष अथवा मुक्ति ) को प्राप्त करता है ।
विशेष :- मोह रूपी विकार को मुक्ति में सबसे बड़ा बाधक तत्त्व माना गया है । लेकिन जैसे ही कोई मनुष्य अपने आप को समभाव से युक्त कर लेता है । वैसे ही वह इस मोह रूपी विकार से मुक्त हो जाता है । इसी अवस्था में बने रहने से ही बाद में उसे मुक्ति मिलती है । अतः व्यक्ति का समभाव से युक्त होना आवश्यक है ।
dr sahab nice explain about balance human being benefits.