बुद्धि को स्थिर व मन को प्रसन्न करने के उपाय

 

 रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। 64 ।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। 65 ।।

 

 

व्याख्या :- जिस भी साधक ने अपने अन्तःकरण को अपने वश में कर लिया है । वह संयमित होकर विषयों का सेवन करता है । ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि विषयों का सेवन कभी भी रागपूर्ण नहीं होना चाहिए और इसी प्रकार उनका त्याग भी द्वेषपूर्ण नहीं होना चाहिए । इस प्रकार आत्मसंयम करने वाले साधक का चित्त सदा प्रसन्न रहता है ।

 

चित्त के प्रसन्न होने से सभी दुःखों की हानि अर्थात् सभी दुःखों का नाश होता है और चित्त के प्रसन्न रहने से साधक की बुद्धि भी स्थिर होती है ।

 

 

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ।। 66 ।।

 

 

व्याख्या :- असंयमित अन्तःकरण ( मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त ) वाले मनुष्य की बुद्धि कभी भी स्थिर नहीं होती और न ही उसकी भावना निश्चय से युक्त होती है । इसलिए जिसकी बुद्धि स्थिर नहीं है और न ही जिसकी भावना निश्चित ( पक्की ) है । उसे शान्ति किस प्रकार मिल सकती है और जिसे शान्ति नहीं तो उसे सुख कहाँ से मिल सकता है ?

 

 

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। 67 ।।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 68 ।।

 

 

व्याख्या :- जिस प्रकार पानी में चलती हुई नाव को तेज हवा का झोका डूबा देता है । ठीक उसी प्रकार जब हमारा मन इन्द्रियों के अधीन हो जाता है तो वह इन्द्रियाँ मनुष्य का पतन कर देती हैं ।

 

इसलिए हे महाबाहो अर्जुन ! जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों को उनके सभी विषयों से चारों ओर से रोक दिया है अर्थात् इन्द्रियों को अपने अधीन ( वश में ) कर लिया है । उसी पुरुष की बुद्धि स्थिर है अर्थात् वही पुरुष स्थिर बुद्धि कहलाता है ।

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