न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ 6 ।।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ 7 ।।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥ 8 ।।

 

व्याख्या :- हम सब तो इस बात को भी नहीं जानते कि वो हमसे ज्यादा ताकतवर हैं या हम उनसे ज्यादा ताकतवर, साथ ही वह हमारे ऊपर विजय प्राप्त करेंगे या हम उनपर विजय प्राप्त करेंगे ? और हम जिन्हें मारकर जीना भी नहीं चाहते । वे ही हमारे भाई – बन्धु धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे विरुद्ध लड़ने के लिए खड़े हैं ।

इसलिए कायरता रुपी दोष से नष्ट हुए स्वभाव अर्थात् दबे हुए क्षत्रिय स्वभाव से युक्त धर्म के विषय में डगमगाये हुए चित्त वाला मैं तुम्हारा शिष्य तुमसे पूछता हूँ, मुझे अपनी शरण में लेते हुए मेरे लिए जो कुछ भी हितकर ( कर्तव्य कर्म ) हो, वह मुझे बताइये ।

क्योंकि मुझे इस पृथ्वी पर बिना किसी प्रकार की बाधा अथवा रुकावट के पूरी तरह से धन- धान्य से परिपूर्ण राज्य या देवताओं के स्वर्ग का भी एकाधिकार प्राप्त होने पर भी कोई ऐसा समाधान दिखाई नहीं दे रहा,  जोकि मेरी इन्द्रियों को सुखाने ( कमजोर ) वाले इस शोक को दूर कर सके ।

 

 

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ 9 ।।

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ 10 ।।

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ 11 ।।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ 12 ।।

 

व्याख्या :-  संजय धृतराष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे परन्तप ! अर्थात् शत्रुओं का संहार करने वाले इस प्रकार अर्जुन ने श्रीकृष्ण को कहा कि हे गोविन्द ! मैं युद्ध नहीं करूँगा और यह कहकर अर्जुन चुप हो जाता है ।

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! उसके बाद दोनों सेनाओं के बीच रथ में विषादग्रस्त अवस्था में बैठे हुए अर्जुन को हंसते हुए बोले कि तुम ऐसे व्यक्तियों की मृत्यु के बारे में शोक कर रहे हो जिनकी मृत्यु पर शोक होना ही नहीं चाहिए और बातें तुम पण्डित अथवा विद्वानों वाली कर रहे हो । जबकि पण्डित अथवा ज्ञानी लोग जीवित या मृत किसी के लिए भी शोक नहीं करते हैं ।

यह आत्मा अमर है । इसका कभी भी नाश नहीं होता । ऐसा नहीं है कि तुम, मैं या यह सभी राजा लोग इससे पहले पैदा ही नहीं हुए हैं और न ही ऐसा है कि आगे भी हम सभी नहीं होंगे । हम सभी सदैव रहे हैं और आगे भी ऐसे ही रहेंगे ।

 

 

 

विशेष :-  इन श्लोकों से आत्मा की नित्यता का वर्णन प्रारम्भ हो जाता है । यहाँ से श्रीकृष्ण आत्मा के अविनाशी होने का प्रमाण देना आरम्भ कर देते हैं ।

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