स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं ?

 

 अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ।। 54 ।।

 

 

व्याख्या :-  अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि हे केशव ! आप मुझे यह बताइये कि स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ साधक की क्या परिभाषा या लक्षण होते हैं ? वह स्थितप्रज्ञ व्यक्ति किस प्रकार उठता- बैठता है व उसका बोलना व चलना किस प्रकार का होता है ?

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में अर्जुन स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ व्यक्ति के आचरण के विषय में पूछता है कि उसका व्यवहार कैसा होता है ?

 

स्थितप्रज्ञ के लक्षण

 

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। 55 ।।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। 56 ।।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 57 ।।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 58 ।।

 

 

व्याख्या :-  स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे अर्जुन ! जिस समय कोई व्यक्ति अपनी सभी मनोकामनाओं अथवा इच्छाओं का त्याग कर देता है और अपने आत्मिक सुख द्वारा अपने आप ( स्वयं ) में ही सन्तुष्ट रहता है । उसी समय वह व्यक्ति स्थितप्रज्ञ अवस्था को प्राप्त कर लेता है अथवा उसे ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।

 

दुःख में जिसके मन में कभी भी उद्वेग ( तनाव ) नहीं आता व सुख के प्रति जिसकी लालसा खत्म हो गई है । जिसके राग- द्वेष, भय और क्रोध आदि विकार नष्ट हो गए हैं । उस मुनि को स्थितप्रज्ञ कहते हैं ।

 

जो सभी बातों अथवा विषयों से आसक्ति या लगाव रहित हो चुका है । जिसका शुभ कार्यों अर्थात् अनुकूलता से लगाव व अशुभ अर्थात् प्रतिकूलता से द्वेष खत्म हो गया है । उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है अथवा उसे स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है ।

 

जिस प्रकार कछुआ खतरे को देखकर अपने सभी अंगों को मजबूत खोल में छुपा ( समेट ) लेता है । ठीक उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति आसक्ति रूपी खतरे को देखकर अपनी इन्द्रियों के विषयों से अपने मन को हटा अथवा दूर कर लेता है । तब उसे स्थिर बुद्धि समझना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित चार श्लोकों में स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ साधक के लक्षणों का वर्णन किया गया है । जोकि व्यवहारिक व परीक्षा की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है । इन सभी लक्षणों को अपने जीवन में आत्मसात करने से व्यक्ति की बुद्धि स्थिर होगी । जिससे वह समाधिस्थ की अवस्था को शीघ्र ही प्राप्त कर सकता है । परीक्षा में भी इससे सम्बंधित प्रश्न पूछे जाते हैं ।

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