बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ।। 50 ।।

 

व्याख्या :-  जो व्यक्ति समबुद्धि से युक्त होकर कार्य करता है । वह इस संसार में सभी पाप व पुण्य कर्मों से रहित हो जाता है । इसलिए हमें समबुद्धि का सहारा लेकर ही सभी कार्य करने चाहिए । इस प्रकार समबुद्धि से युक्त होकर कार्य करने से व्यक्ति के सभी कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं और कार्य को कुशलतापूर्वक करना ही योग है ।

 

 

विशेष :-  यह श्लोक भी गीता के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है । परीक्षा की दृष्टि से भी इसके सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे यह श्लोक किस अध्याय का है ? जिसका उत्तर है दूसरे अध्याय का पचासवां श्लोक ( 2/50 ) । इस श्लोक को भी योग की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है ।

 

 

यहाँ पर समबुद्धि का अर्थ समभाव से युक्त होना ही है । जब व्यक्ति अपने सभी कार्य समबुद्धि से युक्त होकर करने लगता है तो वह सभी पाप- पुण्य कर्मों से पूरी तरह से अलिप्त हो जाता है । इसी अवस्था में व्यक्ति द्वारा किए गए सभी कार्य कुशल अर्थात् सही होते हैं ।

 

 

आज प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है कि उसके द्वारा किया गया कार्य कुशल होना चाहिए । कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसके द्वारा किया गया कार्य गलत हो । इसके बावजूद भी कुछ व्यक्तियों के कार्य कुशलता से पूर्ण होते हैं तो वहीं कुछ के कार्य सही से नहीं हो पाते हैं ।

 

 

इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है कि व्यक्ति द्वारा कार्य को किस मनोभाव से किया गया है ? किसी भी कार्य की सफलता व असफलता के पीछे यही प्रमुख कारण होता है ।

 

 

जैसे एक खिलाड़ी खेल को केवल जीत व हार अथवा मनोरंजन के लिए खेलता है तो वह केवल सामन्य स्तर का ही खिलाड़ी बन पाता है । लेकिन जैसे ही कोई खिलाड़ी खेल को सफलता की खुशी व असफलता के डर से रहित होकर स्वयं को समबुद्धि से युक्त करके पूरे मनोयोग, निष्ठा, धैर्य, दिलचस्पी व सावधानी से खेलता है । तो निश्चित रूप से वह विश्व स्तर का खिलाड़ी बनता है ।

 

इसके विपरीत जब खिलाड़ी केवल जीत अथवा हार को आधार बनाकर खेलता है तब दो बातें होती हैं । एक यदि परिणाम उसके अनुकूल आता है तो वह बहुत प्रसन्न होता है । जिससे उसके अन्दर अहम बढ़ता है । और यदि परिणाम उसकी आशा के विपरीत आता है तो वह अत्यंत हताश व निराश होता है । यह दोनों ही स्थितियाँ किसी भी खिलाड़ी के लिए हानिकारक होती हैं ।

 

 

तभी श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि जब किसी कार्य को करते हुए सफलता व असफलता को आधार बनाया जाता है तो उसका परिणाम हमेशा नकारात्मक ही होता है । इसलिए प्रत्येक कार्य को समबुद्धि से युक्त ( सफलता व असफलता से रहित ) होकर ही करना चाहिए । ऐसा करने से व्यक्ति कर्मफल के बन्धन में कभी नहीं फंसता । किसी भी कर्म अथवा कार्य को फल की आसक्ति से युक्त होकर करना ही दुःखों का प्रमुख कारण है । यदि आप चाहते हैं कि आपके जीवन में दुःख न आएं तो सभी कर्मों को फल की आकांक्षा से रहित होकर करना प्रारम्भ करें ।

 

 

 

कार्य को सिद्ध करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को समबुद्धि व कर्मफल की आसक्ति से रहित होकर ही कर्म करना चाहिए । इस प्रकार कर्म करने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं । यही सभी कार्यों की सिद्धि का आधार है ।

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  1. ओम् गुरुदेव!
    कर्म करने की कुशलता की अत्यंत ही उत्तम व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
    इसके लिए आपको हृदय से आभार।

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