योग की परिभाषा ( समत्वं योग )

 

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। 48 ।।

 

व्याख्या :-  हे धनंजय ! तुम योग में पूरी तरह से स्थित होकर ( अपने चित्त को सम अवस्था में रखकर ) फल की इच्छा को त्यागकर कार्य की सिद्धि ( सफलता ) व असिद्धि ( असफलता ) दोनों ही अवस्थाओं में अपने आप को समभाव ( एक समान भाव ) में रखना ही योग अर्थात् समत्वं योग है ।

 

 

विशेष :-  यह श्लोक गीता के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है । इसे योग की परिभाषा के रूप में भी प्रयोग किया जाता है । यह भी व्यवहारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण श्लोक है ।

 

 

परीक्षा में भी यह पूछा जाता है कि यह श्लोक गीता के किस अध्याय से लिया गया है ? जिसकाउत्तर है दूसरे अध्याय का अड़तालीसवां श्लोक ( 2/48 ) । इसके अतिरिक्त यह भी पूछा जा सकता है कि समत्वं का अर्थ क्या होता है ? जिसका उत्तर है समभाव से युक्त ।

 

एक बात को आपने अपने अध्यापक या बड़े – बुजुर्गों से बहुत बार सुना होगा कि व्यक्ति को कभी भी ज्यादा खुशी व ज्यादा दुःख में किसी प्रकार का कोई निर्णय अथवा वादा नहीं करना चाहिए । क्योंकि आगे चलकर यह बहुत ही पीड़ादायक हो सकता है । इसके पीछे का कारण हमारी मानसिक स्थिति होती है । जब कभी हम बहुत ज्यादा खुश होते हैं तो हम उस खुशी में दूसरों के प्रति ज्यादा उदारता दिखाना शुरू कर देते हैं । इसके अलावा उस समय हम किसी भी प्रकार का उचित अथवा अनुचित वादा भी कर बैठते हैं । जिसे पूरा किया जाना कई बार सम्भव नहीं होता ।

 

 

रामायण में जब राजा दशरथ ने अत्यंत प्रसन्नता में आकर रानी कैकई को वर माँगने की बात कही थी । तब रानी कैकेई ने कहा था कि जब उचित समय होगा तब मैं आपसे यह वर मांग लूँगी और आप सभी ने देखा कि रानी कैकई ने किस समय पर क्या वर मांगे थे ? उस समय राजा दशरथ को भी इस बात का अनुमान नहीं था कि उनके द्वारा खुशी के अवसर पर दिए गए वरदान राम को वनवास भेज देंगे और इस पीड़ा में स्वयं उनके प्राण तक चले जाएंगे ।

 

 

इसी प्रकार यदि हम आज की युवा पीढ़ी की बात करें तो उसमें भी आपने देखा होगा कि जब कोई लड़का – लड़की एक दूसरे के साथ प्रेम सम्बन्ध में होते हैं तो दोनों ही एक दूसरे को लेकर बहुत ज्यादा प्रतिबद्ध अथवा समर्पण दर्शाने का प्रयास करते रहते हैं । अपने प्रेम की गहराई अथवा पराकाष्ठा दिखाने के लिए वह न जाने कैसे- कैसे वादे एक दूसरे से करते रहते हैं ? उनमें से सौभाग्य से जिनकी शादी एक दूसरे के साथ हो जाती है । उनके लिए शादी के बाद उन सभी वादों को पूरा करना कठिन होता है । क्योंकि प्यार के जोश में हम कुछ ज्यादा ही बोल देते हैं । जिससे सामने वाले को हमसे बहुत सारी उम्मीद हो जाती है । बाद में किन्ही कारणों से उनको पूरा कर पाना सम्भव नहीं हो पाता है । तब उनके सम्बन्ध के बीच में जो दरार पैदा होती है । उसे दूर कर पाना बहुत ही कठिन होता है । ये तो हुई शादी की बात । अब वह युवक व युवतियाँ जिनकी शादी किन्ही कारणों से नहीं हो पाती है । फिर चाहे वह लड़के की ओर से कमी हो या लड़की की ओर से । दोनों ही स्थितियों में ज्यादातर भयानक परिणाम देखने को मिलते हैं । यदि लड़का किसी और से शादी करता है तो वह लड़की उसे कोसती रहती है और यदि लड़की ऐसा करती है तो वह लड़का उसे जीवन भर कोसता रहता है ।

 

यदि हम शादी होने या न होने के बाद कि इन परिस्थितियों का सही से आंकलन करें तो हमें पता चलता है कि जब हम बहुत ज्यादा प्यार में होते हैं तो उस समय पर हम एक अलग ही खुशी, उत्साह व उमंग में होते हैं । उस समय हम बिना पंख के उड़ रहे होते हैं । इसी कारण से हम एक दूसरे से बड़े – बड़े वादे कर देते हैं । यहाँ पर मेरा यह नहीं कहना चाहता कि किसी को प्यार नहीं करना चाहिए । मेरा कहना केवल इतना है कि प्यार में पूरी ईमानदारी और सजगता से कोई भी निर्णय अथवा वादा करना चाहिए । जिससे आने वाले समय में किसी प्रकार के विवाद अथवा तनाव की स्थिति से बचा जा सके ।

 

 

 

इसी प्रकार व्यक्ति को कोई भी निर्णय क्रोध अथवा गुस्से में नहीं लेना चाहिए । वह भी बहुत हानिकारक होता है । क्रोध से हमारी बुद्धि की क्षमता बहुत कम हो जाती है । जिससे हमें सही और गलत का भेद नहीं रहता । जिसके चलते हम गलत निर्णय ले लेते हैं और बाद में उसके परिणाम पर पछताते रहते हैं । इसे भी हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं ।

 

 

जब ऋषि वाजश्रवा यज्ञ ( हवन ) के बाद पुरोहितों को दक्षिणा के रूप में गाय भेंट कर रहे थे । तब उनके पुत्र नचिकेता ने देखा कि वह सभी गाय बूढ़ी व असहाय थी । इसे देखकर उसने अपने पिता ऋषि वाजश्रवा से पूछा कि आप मुझे किसको दान में देंगे ? तो वाजश्रवा ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया और चुप रहे । यह देखकर नचिकेता ने फिर से इसी प्रश्न को दोहराया । लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला । इसी तरह बार- बार यही प्रश्न पूछने पर ऋषि वाजश्रवा क्रोधित होकर बोले कि जा मैं तुझे यमराज ( मृत्यु का देवता ) को दान देता हूँ । यह सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा छा गया । पिता का उत्तर सुनकर बेटे नचिकेता ने इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि पिताजी मैं आपके इस वचन का पालन अवश्य करूँगा । यह सुनकर ऋषि वाजश्रवा को भी अपनी गलती का अहसास हो गया । लेकिन चूंकि अब यह वचन दे दिया गया था । तो इसे पूरा करना आवश्यक था । उसके बाद नचिकेता यमराज के पास चला जाता है । लेकिन ऋषि वाजश्रवा को इसका गहरा दुःख होता है कि मैंने क्रोध में आकर क्या अनर्थ कर दिया ?

 

 

अब प्रश्न उठता है कि आखिर किस समय पर हमें अपने जीवन में कोई भी निर्णय नहीं लेना चाहिए ?

 

इसका उत्तर है कि व्यक्ति को अत्यंत अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में किसी प्रकार का कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए ।

 

जो समत्वं योग अर्थात् समता से युक्त भाव का अनुसरण करते हैं । उनको जीवन में कभी भी इस प्रकार की परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ता । इसीलिए योगी श्रीकृष्ण कहते हैं कि समभाव से युक्त होना ही योग है । यदि आज इस श्लोक को हम अपने व्यवहार में धारण कर लेते हैं तो सौ प्रतिशत हम जीवन में कभी भी हताश अथवा निराश नहीं हो सकते । मात्र इस श्लोक के मानने से हमारा पूरा जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो सकता है ।

 

 

अतः अपने आप को समभाव से युक्त करके ही कोई निर्णय लेना चाहिए । इससे हमारे द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय सही होगा ।

 

 

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।। 49 ।।

 

 

व्याख्या :-  बुद्धियोग ( समत्वं योग ) की अपेक्षा सकाम कर्म ( आसक्ति से युक्त कर्म ) बहुत ही निम्न ( नीची ) अवस्था वाला होता है । इसलिए हे धनंजय ! तुम इसी बुद्धियोग अर्थात् समत्वं योग का आश्रय ( शरण ) लो । इसके विपरीत फल की आसक्ति पर आधारित होकर कर्म करने वाले मनुष्यों को अत्यंत दयनीय स्थिति ( कृपा का पात्र या असहाय ) वाला माना जाता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में समत्वं योग व फलासक्ति पर आधारित सकाम कर्म दोनों की तुलना की गई है । जिसमें सकाम कर्म को बहुत नीची अवस्था वाला माना गया है ।

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  1. Very nice description. Prashn ye hai ki sambhav kaise paida kre.hota kya hai hm samhate hai lakin action me nhi la skte.sirf janane se kya hoga

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