अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ 36 ।।
व्याख्या :- इस प्रकार तेरे सभी शत्रु तुम्हारी योग्यता की निन्दा अर्थात् बुराई करते हुए तुम्हें अनेकों ऐसी बातें कहेंगे, जोकि कहने योग्य नहीं हैं । तुम्हारी योग्यता की निन्दा से अधिक दु:खदायक तुम्हारे लिए और क्या हो सकता है ?
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ 37 ।।
व्याख्या :- यदि तुम इस युद्ध में मारे गए तो सीधा स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो इस पृथ्वी के राज्य को भोगोगे । अतः हे कौन्तेय ! दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ युद्ध करने के लिए खड़े हो जाओ ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ 38 ।।
व्याख्या :- सुख- दुःख, लाभ- हानि व जय- पराजय को एक समान समझकर तुम युद्ध करो । इस प्रकार कर्तव्य कर्म का पालन करने से तुम्हें किसी प्रकार का कोई पाप नहीं लगेगा ।
विशेष :- इस श्लोक में श्रीकृष्ण सभी सम व विषम परिस्थितियों में समभाव रखने की बात कहते हैं । सम और विषम परिस्थितियों ( सुख- दुःख, लाभ- हानि व जय- पराजय ) को योग में द्वन्द्व कहा जाता है ।
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ 39 ।।
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ 40 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! इस प्रकार ( समभाव ) बुद्धि की बात को सांख्ययोग में कहा गया है । अब तुम कर्म के बन्धन से मुक्त कराने वाली इस ज्ञान से युक्त बुद्धि के विषय में मुझसे सुनो । जिसके प्रभाव से तुम्हारे सभी कर्म बन्धन समाप्त हो जाएंगे ।
इस निष्काम कर्मयोग को शुरू करने पर कभी भी इसका नाश नहीं होता । बल्कि प्रतिपल अथवा प्रतिक्षण कुछ न कुछ मिलता ही है और साथ ही इसका कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता । यदि मनुष्य इस कर्मयोग की थोड़ी मात्रा में भी साधना करता है तो वह साधना उसकी बड़े से बड़े भय से भी रक्षा करती है ।
विशेष :- इस श्लोक में बहुत ही गहरी बात छुपी हुई है । यदि इसे हम अपने जीवन में आत्मसात कर लेते हैं तो यह हमारे जीवन को सफल बना सकती है । इसमें समबुद्धि से युक्त होकर निष्काम कर्म करने की बात कही गई है । जब व्यक्ति समबुद्धि से युक्त हो जाता है तो वह अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आप को स्थिर अथवा स्थापित कर लेता है । जिससे किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस प्रकार जब व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में समान भाव से काम करता है तो उसकी कर्म से भी आसक्ति समाप्त हो जाती है । इस प्रकार वह निष्काम कर्मयोग करने वाला कर्मयोगी बन जाता है । आज हमारे समाज में सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अनुकूल परिस्थिति में अहम व प्रतिकूल परिस्थिति में तनाव से ग्रस्त हो जाता है । यह दोनों ( अहम व तनाव ) ही परिस्थिति मनुष्य के लिए अहितकारी अथवा घातक साबित होती हैं । अतः अहम व तनाव से बचने के लिए मनुष्य का समबुद्धि वाला होना बहुत आवश्यक है । इसी से कर्म बन्धन से मुक्त होकर व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है ।
Dr sahab nice explain.
धन्यवाद गुरु जी