वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥ 21 ।।

 

व्याख्या :-  हे पार्थ ! जिस भी व्यक्ति ने आत्मा के इस स्वरूप को जान लिया है कि यह अविनाशी ( नाश रहित ), नित्य ( सदा रहने वाला ), अजन्मा ( जन्म रहित ) और अव्यय ( जिसमें कोई बदलाव न हो सके ) है । तो वह कैसे किसी को मार अथवा मरवा सकता है ?

 

 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ 22 ।।

 

व्याख्या :-  जैसे कोई व्यक्ति अपने फटे- पुराने कपड़ों को त्यागकर ( छोड़कर ) नए कपड़े पहन लेता है, ठीक उसी प्रकार यह आत्मा भी पुराने व जर्जर हो चुके शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण कर लेता है ।

 

 

विशेष :-  आत्मा के विषय में यह अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रचलित श्लोक है । जिसे आप सभी ने बहुत बार सुना होगा । जिस दिन हम सभी इस श्लोक के सार को सही अर्थों में समझ लेंगे । उसके बाद आप किसी भी व्यक्ति के मृत्यु पर शोक प्रकट नहीं करेंगे । जब भी हम किसी व्यक्ति की शोक सभा में जाते हैं तो वहाँ पर कोई न कोई विद्वान इस श्लोक को बोलता है और फिर इसके अर्थ को भी समझाता है । यहाँ पर सबसे रोचक बात यह है कि उस समय पर हम सभी इस श्लोक की वास्तविकता को स्वीकार भी कर लेते हैं । लेकिन जैसे ही हम उस शोक सभा से वापिस अपने काम अथवा घर पर लौट आते हैं वैसे ही हम वापिस उसी नश्वर शरीर के मोह में फंस जाते हैं । विद्वानों की भाषा में इसे श्मशान वैराग्य की संज्ञा दी गई है । श्मशान वैराग्य का अर्थ होता है जब भी हम किसी भी व्यक्ति के अन्तिम संस्कार में जाते हैं तो हमें इस जीवन के लोभ, मोह, क्रोध व  अहंकार आदि सभी बाधक तत्त्वों से वैराग्य ( लगाव या आसक्ति रहित भाव ) हो जाता है । उस समय हम यही सोचते हैं कि इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है पता नहीं मुझे भी कब यहाँ पर आना पड़ जाए । इसलिए जीवन की यह भागदौड़ सब व्यर्थ है । लेकिन जैसे ही इस प्रकार की बात सोचने वाला मनुष्य उस श्मशान घाट से वापिस लौट कर अपनी दिनचर्या में शामिल हो जाता है वैसे ही वह फिर से उसी लोभ, मोह, क्रोध व अहंकार से युक्त हो जाता है । जिसे कुछ ही समय पहले वह व्यर्थ समझ कर छोड़ने का मन बना चुका था । फिर से उसी में आकर फंस जाता है । इसे ही विद्वान श्मशान वैराग्य कहते हैं । इसे हम कुछ समय या अल्प समय का वैराग्य भी कह सकते हैं ।

लेकिन जब हम ऊपर वर्णित इस श्लोक को वास्तव में अपने जीवन में आत्मसात कर लेते हैं, तब हमें किसी भी प्रकार का दुःख व अवसाद नहीं रहता । क्योंकि मरने वाला वह शरीर है जिसे कभी न कभी तो नष्ट होना ही था । और जब कोई वस्तु नष्ट होने वाली होती है तो उसके नष्ट होने पर शोक करने का क्या औचित्य है ? अतः जीवन से सभी मानसिक अवसादों को दूर करने के लिए आज इस श्लोक को अपने जीवन में धारण करने की आवश्यकता है ।

 

 

 

परीक्षा की दृष्टि से :-  यह श्लोक परीक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । परीक्षा में पूछा जा सकता है कि यह गीता के किस अध्याय का कौनसा श्लोक है ? जिसका उत्तर है गीता के दूसरे अध्याय के बाइसवें ( 2 / 22 ) श्लोक के रूप में इसका वर्णन किया गया है ।

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