दूसरा अध्याय ( सांख्ययोग )
गीता के इस अध्याय में ही योगी श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का अनमोल ज्ञान देना शुरू करते हैं । पहले अध्याय में आपने देखा कि किस प्रकार अर्जुन मोह में फंसकर भयंकर अवसाद में डूबा हुआ था । जैसे ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन की यह अवस्था देखी वैसे ही उन्होंने अर्जुन के अवसाद की उचित चिकित्सा करने के लिए गीता के अमृत रूपी ज्ञान की वर्षा करना प्रारम्भ कर दी ।
इस अध्याय में कुल बहत्तर ( 72 ) श्लोक कहे गए हैं ।
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ 1 ।।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।। 2 ।।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ 3 ।।
व्याख्या :- इस प्रकार करूण से भरे, आँखों से आँसू टपकाते हुए व्याकुल अर्जुन को अवसादग्रस्त अवस्था में देखकर मधुसूदन ( श्रीकृष्ण ) कहते हैं कि हे अर्जुन ! इस विषम परिस्थिति ( युद्ध अथवा संकट के समय ) में तुम्हारे मन को मलिन करने वाली यह भावना कहाँ से उत्पन्न हो गई ? यह आचरण अनार्यों ( निकृष्ट ) का होता है । इस प्रकार के आचरण से न तो तुम्हे स्वर्ग की प्राप्ति होगी और न ही कीर्ति की ।
इसलिए हे पार्थ ! तुम इस प्रकार की कायरता मत दिखाओ । तुम जैसे शूरवीर को इस प्रकार की कायरता शोभा नहीं देती । अतः तुम अपने हृदय की इस दुर्बलता को छोड़कर अथवा त्यागकर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ ।
विशेष :- इन श्लोकों से श्रीकृष्ण गीता के ज्ञान को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम अर्जुन को उसकी वीरता का परिचय कराते हुए युद्ध के लिए तैयार करने का काम करते हैं ।
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ 4 ।।
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ 5 ।।
व्याख्या :- हे मधुसूदन ! मैं इस रणक्षेत्र में भीष्म पितामह व गुरु द्रोणाचार्य के विरुद्ध बाणों से किस प्रकार युद्ध करूँगा ? हे अरिसूदन ! यह दोनों तो मेरे लिए पूज्यनीय अर्थात् पूजा करने योग्य हैं ।
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मेरे लिए इस लोक ( संसार ) में भीख मांगकर अन्न ग्रहण करना भी अधिक कल्याणकारी होगा, क्योंकि गुरुजनों की हत्या करके इस लोक में खून से सने ( धंसे या लगे ) हुए भोगों को ही तो भोगना पड़ेगा ।
विशेष :- युद्ध के मैदान में अपने सामने खड़े हुए भीष्म पितामह व गुरु द्रोणाचार्य को देखकर अर्जुन कहता है कि यह तो मेरे लिए पूजा व सत्कार के योग्य हैं । मैं इनके विरुद्ध युद्ध कैसे कर सकता हूँ ? इनको मारने से केवल भोग ही तो प्राप्त होंगे ।
nice explain dr sahab.
ॐ गुरुदेव!
बहुत बहुत आभार आपका।