आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌ ।। 17 ।।

 

 

व्याख्या :-  यह असुर व्यक्ति अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले, अभिमानपूर्ण अथवा कठोर व्यवहार करने वाले, धन और मद से युक्त होकर, शास्त्र विधि को छोड़कर, पाखण्ड पूर्ण तरीके से केवल नाममात्र का यजन – पूजन करते हैं ।

 

 

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ।। 18 ।।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌ ।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।। 19 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  वह निन्दक लोग अहंकार, बल, दर्प व काम और क्रोध का आश्रय लेकर अपने व दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमेश्वर से द्वेष करते हैं –

 

उन द्वेष व क्रूर कर्म करने वाले सभी पापी लोगों को मैं इस संसार की असुर योनियों में बार- बार डालता रहता हूँ अर्थात् मैं उन्हें बार – बार पाप योनियों में ही जन्म देता हूँ ।

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