यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ।। 23 ।।

 

 

व्याख्या :-  इसके विपरीत जो व्यक्ति शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करता है, तो उसे न सिद्धि मिलती है, न सुख मिलता है और न ही परमगति प्राप्त होती है ।

 

 

 

कार्य – अकार्य का भेद = शास्त्र प्रमाण

 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।। 24 ।।

 

 

व्याख्या :-  कार्य और अकार्य अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इसका निर्णय हमें शास्त्र द्वारा दिए गए प्रमाण से करना चाहिए । शास्त्र विधि को जानकर ही तुम्हें इस लोक में कर्म करना चाहिए ।

 

 

 

विशेष :-  यह श्लोक व्यवहार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । बहुत बार हम हम इस उलझन में होते हैं कि हमारे लिए क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित है ? तब इस उलझन को सुलझाने के लिए हमें शास्त्रों में दिए गए प्रमाणों को आधार मानकर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए । शास्त्र ही वह प्रमाण हैं जो हमें सही और गलत का अन्तर बताते हैं । अतः जब भी व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य के बीच की उलझन में फंसा हुआ हो, तो उसे शास्त्रों द्वारा बताए गए प्रमाण का सहारा लेना चाहिए । इस प्रकार हम अपने निर्धारित कर्मों को करते हुए शीघ्र ही परमगति को प्राप्त हो जाएंगे ।

 

 

 

 

सोलहवां अध्याय ( दैवासुरसम्पद् विभागयोग ) पूर्ण हुआ ।

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  1. Prnam Aacharya ji. 16ve adhyaya Ka sunder varnan kr pariksha drishtikon prstut krne ke liye. Aapka bhut bhut Dhnyavad.Jai Sriradhekrishna.

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