अभ्यास योग

 

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।। 9 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार यदि तुम्हारा चित्त मुझमें स्थिर न भी हो पाए तो हे धनंजय ! अभ्यास योग द्वारा अपने चित्त को एकाग्र करने का बार – बार प्रयास करते हुए मुझे प्राप्त करने की इच्छा रखो ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में चित्त को एकाग्र करने के लिए श्रीकृष्ण ने अभ्यास योग का आश्रय लेने की बात कही है ।

 

 

 ईश्वर प्रणिधान

 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  यदि तुम अभ्यास योग करने में भी असमर्थ हो, तो मुझे प्राप्त करने के लिए तुम अपने सभी कर्मों को मुझमें अर्पित करते हुए सभी कार्य मेरे लिए करो । इस प्रकार अपने सभी कर्मों का अर्पण मुझमें करने से तुम्हें सिद्धि की प्राप्ति होगी ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में ईश्वर प्रणिधान की बात कही गई है । बिना किसी फल प्राप्ति की इच्छा किए अपने समस्त कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है ।

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