समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः ।। 18 ।।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।। 19 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  जिसके लिए मित्र और शत्रु दोनों ही एक समान हैं तथा जिसके लिए मान व अपमान दोनों ही परिस्थितियों एक समान हैं, जो सर्दी- गर्मी, सुख- दुःख आदि सभी द्वन्द्वों में अपने आप को सम भाव से युक्त रखता है और जो किसी के प्रति आसक्ति अथवा राग नहीं रखता है –

 

 

जिसके लिए निन्दा व स्तुति एक समान हैं अर्थात् जो बुराई करने पर बुरा नहीं मानता और अच्छाई करने पर खुश नहीं होता, जो मितभाषी अर्थात् जो कम बोलता है, जितना मिल जाये उसी में सन्तोष ( सब्र ) करने वाला, जो शरीर की आसक्ति से रहित है, जिसकी बुद्धि स्थिर है अथवा जो स्थितप्रज्ञ और भक्तिभाव से युक्त है, वही मनुष्य मुझे प्रिय है ।

 

 

 

सबसे प्रिय भक्त के लक्षण

 

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।। 20 ।।

 

 

व्याख्या :- जो भक्त ऊपर वर्णित अमृत के समान धर्म का आचरण करता है, जो अपने सभी कर्मों को मुझमें अर्पित करते हुए, श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना करता है, वह भक्त मुझे सभी भक्तों में सबसे अधिक प्रिय ( प्यारा ) है ।

 

 

 

विशेष :-  ऊपर बताये गए प्रिय भक्त के सभी लक्षणों को विद्यार्थी अच्छे से याद करलें । परीक्षा में इनसे सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते हैं ।

 

 

 

बारहवां अध्याय ( भक्तियोग ) पूर्ण हुआ ।

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