श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।। 49 ।।
शब्दार्थ :- श्रुत, ( श्रवण अर्थात सुनने से ) अनुमान, ( अंदाजे या अटकल से ) प्रज्ञाभ्याम्, ( उत्पन्न बुद्धि से ) अन्यविषया, ( भिन्न अथवा अलग विषय वाली ) विशेष, ( विशिष्ट ) अर्थत्वात् ( अर्थ या ज्ञान वाली होती है । )
सूत्रार्थ :- सुने हुए व अंदाजे या अनुमान से प्राप्त बुद्धि के ज्ञान से अलग विषय का विशिष्ट ज्ञान करवाने वाली बुद्धि ऋतम्भरा बुद्धि होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में ऋतम्भरा बुद्धि व अन्य सामान्य बुद्धि के बीच के अन्तर को दर्शाया गया है । किसी भी वस्तु या पदार्थ की जानकारी या उसका ज्ञान हमें मुख्य रूप से तीन प्रकार से होता है । 1. प्रत्यक्ष प्रमाण से 2. अनुमान प्रमाण से व 3. शब्द प्रमाण से ।
यहाँ पर शब्द व अनुमान प्रमाण की बात कही गई है । जो ज्ञान हमारी बुद्धि को कुछ सुनने से या उसका अंदाजा लगाने से होता है । उस ज्ञान में किसी प्रकार की कुछ कमी हो सकती है । लेकिन ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि से प्राप्त होने वाला ज्ञान विशिष्ट या उत्कृष्ट होता है । यानी उस ज्ञान में किसी प्रकार की कोई कमी नही होती है ।
जब साधक की ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत होती है तो उसे विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है । यह ज्ञान शब्द प्रमाण व अनुमान प्रमाण से ज्यादा उपयुक्त होता है ।
शब्द प्रमाण व अनुमान प्रमाण को हम एक बार पुनः समझने का प्रयास करते हैं । जो ज्ञान हमें वेद शास्त्रों या ऋषि व गुरुदेव के वचनों से प्राप्त होता है वह शब्द प्रमाण कहलाता है ।
जैसे जीवात्मा को योगाभ्यास से समाधि की प्राप्ति होती है । यह शब्द प्रमाण कहलाता है । इस ज्ञान से हमें समाधि की केवल समान्य जानकारी होती है । विशेष रूप से नहीं । और अनुमान प्रमाण से हम किसी वस्तु या घटना के विषय में कोई अंदाज या अनुमान ही लगा सकते है । और वह अनुमान भी हमें उसका सामान्य रूप से ज्ञान करवाता है । विशेष रूप से नहीं । जैसे हम नदी में पानी के बढ़े हुए स्तर व मैले रंग को देखकर यह अनुमान तो लगा लेते हैं कि पीछे पहाड़ो में कही बारिश हुई है । लेकिन हमें उसकी विशेष जानकारी नहीं होती कि बारिश कितनी हुई, उससे कितना नुकसान या फायदा हुआ है या इस बारिश का प्रभाव कहाँ – कहाँ तक हुआ है आदि ।
इसलिए शब्द व अनुमान प्रमाण से प्राप्त ज्ञान सामान्य प्रकार का होता है । और उससे हमें सामान्य प्रकार का ही ज्ञान हो सकता है । क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के दो ही स्वरूप होते हैं एक सामान्य और एक विशेष ।
समान्य में व्यक्ति को साधारण जानकारी होती है जबकि विशेष में उसको विशिष्ट जानकारी होती है ।
अतः जब किसी साधक की ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत हो जाती है तो उसकी बुद्धि विशेष प्रकार का ज्ञान या जानकारी करवाने वाली हो जाती है । जो सामान्य अर्थात सुने हुए या अंदाजा लगाए हुए ज्ञान से बिलकुल अलग होती है । यही इस सूत्र का भाव है ।
?Prnam Aacharya ji! By this Sutra you really made us awaken for right knowledge which emerged from Ritambhara Prgya. Thank you so much for giving such a beautiful explanation! ?
Thanku so much sir??
Thank you Sir
Thanks g
Thanks guru ji..
Pranaam Sir! Thank you for enlightening our minds.
Nice guru ji
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है
आर्यवीर जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद