ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। 48 ।।
शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद के प्राप्त होने पर ) प्रज्ञा, ( साधक की बुद्धि ) ऋतम्भरा, ( केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली होती है । )
सूत्रार्थ :- अध्यात्मप्रसाद का लाभ प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि केवल सत्य को जानने वाली हो जाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त करने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन किया गया है । अध्यात्मप्रसाद से साधक समाहित चित्त वाला बन जाता है । उस समाहित चित्त की में भी निपुणता होने पर उत्कृष्ट बुद्धि की प्राप्ति होती है । उस उत्कृष्ट बुद्धि को ही ऋतम्भरा कहा गया है ।
ऋतम्भरा बुद्धि वह होती है जो केवल सत्य को ही ग्रहण करती है । उसमें असत्य या विपरीत ज्ञान का लेश मात्र भी अंश नही होता है ।
सामान्य जीवन में व्यक्ति की बुद्धि असत्य ज्ञान को भी ग्रहण करती रहती है । जिससे वह अविद्या आदि क्लेशों में उलझा जाता है । कलेशों के कारण वह अनावश्यक अर्थात निषेध कार्यों को करता रहता है ।
लेकिन जैसे ही साधक को अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है वैसे ही उसकी बुद्धि केवल और केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली बन जाती है । और सभी कलेशों का नाश हो जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से साधक को अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी हो जाती है । जिससे वह आत्मा, चित्त, मन, शरीर व इन्द्रियों के विषयों का आत्मसात कर लेता है ।
यह ऋतम्भरा प्रज्ञा ही साधक की मुक्ति का साधन बनती है ।
Very nice work sir
?Prnam Aacharya ji! Is shubh gyan se hme awagat karane ke liye Aapko barmbar Prnam v dhanyavad! ?
Very good work done by you sir??
Thank you sir
Very good explanation Somveerji
Thanks guru ji ?
THANK YOU VERY MUCH SIR
Pranaam Sir! Really good if one can reach that state on the path of yoga. Well explained
Nice guru ji
उत्तम से भी अतिउत्तम प्रकार से समझाया है, नमन है आपको
Rishi somveerji pranam,
Gyan read kar to lete hai but maukhik nahi ho pata