निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद: ।। 47 ।। 

 

शब्दार्थ :- निर्विचार, ( निर्विचार समापत्ति में ) वैशारद्ये, ( निपुणता अर्थात निर्मलता आने से ) अध्यात्मप्रसाद:, ( अध्यात्मप्रसाद अर्थात वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । )

 

सूत्रार्थ :- निर्विचार समापत्ति के निरन्तर अभ्यास से साधक इसमें अत्यंत निपुण हो जाता है । जिससे अध्यात्मप्रसाद के रूप में उसके भीतर वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानने की शक्ति का उदय होता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में निर्विचार समापत्ति की निपुणता से प्राप्त होने वाले लाभ का वर्णन किया गया है ।

जब योगी साधक स्थूलभूतों से सूक्ष्मभूतों में सिद्धि प्राप्त करता है । अर्थात सवितर्क और निर्वितर्क समापत्तियों की सिद्धि के बाद वह सविचार और निर्विचार का निरन्तर अभ्यास करता है । इस निरन्तर अभ्यास से साधक निर्विचार समापत्ति में पूर्ण दक्षता अर्थात निपुणता प्राप्त कर लेता है ।

 

निर्विचार समापत्ति में सिद्धि प्राप्त होने से साधक में राजसिक व तामसिक गुणों का अभाव हो जाता है । और उसमें सत्त्वगुण की प्रधानता आ जाती है । सत्त्वगुण के बढ़ने या प्रधानता आने से साधक के सभी

अविद्या आदि क्लेशों का नाश हो जाता है । साथ ही सत्त्वगुण के कारण चित्त बिलकुल निर्मल व शान्त हो जाता है । जिससे साधक को अखण्ड ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

अखण्ड ज्ञान की प्राप्ति से ही वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है । और जब हमें किसी वस्तु या पदार्थ का वास्तविक ज्ञान हो जाता है तो योगी की समाधि निर्बाध अर्थात बिना किसी बाधा के निरन्तर बनी रहती है ।

 

इस अवस्था में साधक ज्ञान के शिखर ( सबसे ऊपर ) पर पहुँच जाता है । ज्ञान के शिखर को ही अध्यात्मप्रसाद कहा गया है । जब साधक इस अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त कर लेता है । तो वह बाकी मनुष्यों को इस प्रकार देखता है, जैसे पहाड़ पर बैठा कोई व्यक्ति नीचे वाले व्यक्तियों को देखता है ।

Related Posts

May 6, 2018

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधिः ।। 51 ।।   शब्दार्थ :- तस्य, ( उसके ) ...

Read More

May 4, 2018

 तज्ज: संस्कारोंऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ।। 50 ।।   शब्दार्थ :- तज्ज, ( उससे उत्पन्न होने वाला ...

Read More

May 3, 2018

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।। 49 ।।   शब्दार्थ :- श्रुत, ( श्रवण अर्थात सुनने से ...

Read More

May 2, 2018

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। 48 ।।   शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}