स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।। 43 ।।

 

शब्दार्थ :- स्मृतिपरिशुद्धौ, ( स्मृति अर्थात पहले भोगे गए सुख- दुःख का अनुभव पूरी तरह से समाप्त होने पर ) स्वरूपशून्या, ( अपने स्वरूप से शून्य अर्थात गौण हुई ) इव, ( जैसी ) अर्थमात्र, ( केवल अर्थ को ही ) निर्भासा, ( दिखाने वाली ) निर्वितर्का, ( निर्वितर्क समापत्ति होती है । )

 

सूत्रार्थ :- स्मृति के पूरी तरह शुद्ध हो जाने पर अपने ग्रहण करने के स्वरूप से गौण हुई, केवल अर्थ को ही दर्शाने वाली निर्वितर्क समापत्ति होती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में निर्वितर्क समापत्ति के स्वरूप का वर्णन किया गया है । इससे पहले वाले सूत्र में सवितर्क समापत्ति का वर्णन करते हुए कहा है कि जब साधक शब्द, उसके अर्थ व उसके ज्ञान को अलग- अलग रूप में देखता रहता है । तब तक वह सवितर्क समापत्ति की अवस्था में होता है । लेकिन जैसे ही साधक वस्तु या पदार्थ के शब्द व ज्ञान का अभाव कर देता है और केवल उसके अर्थ को ही आत्मसात करता है, तो वह अवस्था निर्वितर्क समापत्ति कहलाती है ।

 

निर्वितर्क समापत्ति में जब बुद्धि स्वरूप शून्य अर्थात वस्तु के स्वरूप को दर्शाती है तो वह उसके शब्द व ज्ञान को गौण करने वाली होती है । वहाँ पर केवल अर्थ का ही अहसास होता है ।

 

उदाहरण स्वरूप :- जिस प्रकार पिछले सूत्र में गाय के उदाहरण में बताया गया है कि “गाय शब्द, गाय शब्द का अर्थ व गाय शब्द का ज्ञान” यह तीनों ही अलग – अलग हैं । जो सवितर्क समापत्ति में इनका अहसास मिश्रित अवस्था में होता है । लेकिन निर्वितर्क समापत्ति में वस्तु का केवल अर्थ का ही ज्ञान रहता है बाकी सब गौण हो जाता है । अर्थात जब साधक गाय के विषय का साक्षात्कार करता है तो उसे केवल गाय के अर्थ का ही अनुभव होता है । अन्य किसी गुण या शब्द का नहीं ।

 

ऐसी अवस्था में साधक के चित्त में सभी विकल्पों का अभाव हो जाता है । जिसके कारण चित्त मात्र अर्थ को ही प्रकाशित करता है । इसी अवस्था को निर्वितर्क समापत्ति कहते हैं ।

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