क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणे र्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्ति: ।। 41 ।।

 

शब्दार्थ :- क्षीणवृत्ते, ( जिसकी राजसिक व तामसिक वृत्तियाँ अत्यंत कमजोर या शान्त हो गई हैं ) अभिजातस्य, ( अति उत्तम प्रकार की )  मणे, ( स्फटिक मणि ) इव, ( के समान या के जैसी ) ग्रहीतृ, ( ग्रहण अर्थात प्राप्त करने वाला यानी जीवात्मा या जीव ) ग्रहण, ( जिनके द्वारा ग्रहण अथवा प्राप्त किया जाता है यानी इन्द्रियाँ ) ग्रह्येषु, ( जिनका ग्रहण अर्थात जिनको प्राप्त किया जाए यानी पंचभूत ) तत् स्थ, ( उनके स्वरूप में स्थित होकर ) तदञ्जनता, ( उनके ही जैसा हो जाना ) समापत्ति:, ( समापत्ति कहलाती है । )

 

सूत्रार्थ :- जब साधक की राजसिक व तामसिक वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं । तब उसका चित्त उच्च कोटि की स्फटिक मणि के समान निर्मल व पवित्र हो जाता है । जिससे वह जीवात्मा, इन्द्रियों व पंचभूतों के स्वरूप में स्थित होकर उन्ही के जैसा हो जाता है । यह अवस्था समापत्ति कहलाती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में स्थिर चित्त की विशेषता का वर्णन किया गया है । इससे पूर्व में वर्णित अभ्यासों के द्वारा जब साधक अपने चित्त को स्थिर या एकाग्र कर लेता है । तो उसे किस प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है ? इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि जब साधक निरन्तर अभ्यास द्वारा चित्त की राजसिक व तामसिक वृत्तियों को शान्त कर देता है । तो उसमें केवल सत्त्वगुण की प्रधानता रह जाती है ।

 

सत्त्वगुण की प्रधानता होने के कारण उसका चित्त निर्मल व पवित्र होकर एक उच्च कोटि की स्फटिक मणि के समान चमकने लगता है । जब चित्त स्फटिक मणि की भाँति चमकने लगता है तो जो उसके सामने पदार्थ या वस्तु आती है वह उसी के समान दिखाई देता है । ठीक उसी प्रकार जैसे स्फटिक मणि के सामने किसी भी रंग के पदार्थ या वस्तु को रखने से वह उसी रंग की नजर आना या दिखना शुरू हो जाती है ।

 

जैसे – यदि स्फटिक मणि के सामने लाल रंग की कोई वस्तु रखने से उस स्फटिक मणि का रंग भी लाल दिखाई देने लगता है । इसी प्रकार अन्य रंगों को रखने से वह स्फटिक मणि अन्य रंगों की दिखाई देती है । यहाँ इस स्फटिक मणि को केवल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।

 

ग्रह्येषु :- अपनी इन्द्रियों के द्वारा जब हम किसी का ग्रहण करते हैं । तो ग्रह्येषु कहलाता है । ग्रह्येषु वह पदार्थ होता है जिसे प्राप्त किया जाता है किसी भी माध्यम से । इसलिए यहाँ ग्रह्येषु का अर्थ है पंचभूत । जब हम पंचभूतों का साक्षात्कार करते हैं तो वह चित्त पंचभूतों के समान ही हो जाता है । पंच भूतों में भी यदि स्थूलभूतों जैसे कि पृथ्वी या आकाश आदि में चित्त को लगाते हैं तो वह उन्ही की भाँति दिखाई देता है । और यदि इसे सूक्ष्म भूतों जैसे कि गन्ध या शब्द आदि में लगाया जाता है तो यह चित्त उन सूक्ष्म भूतों की भाँति ही दिखता है । जैसे यदि चित्त एकाग्र चित्त से पहाड़ या आकाश का साक्षात्कार किया जाए तो वह पहाड़ व आकाश के स्वरूप में स्थित हो जाता है ।

 

ग्रहण :- ग्रहण वह साधन होता है जिसके द्वारा किसी पदार्थ या वस्तु को प्राप्त किया जाता है । यहाँ पर ग्रहण का अर्थ हमारी  इन्द्रियों से लिया गया है । क्योंकि पंचभूतों या अन्य किसी भी पदार्थ का ग्रहण केवल इन्द्रियों द्वारा ही किया जा सकता है । जब निर्मल व पवित्र चित्त को साधक अपनी इन्द्रियों में लगाता है तो उसका चित्त इन्द्रियों की भाँति ही भासित अर्थात दिखने लगता है । जैसे यदि एकाग्र चित्त को आँख में केंद्रित किया जाए तो वह आँख के स्वरूप में ही स्थित हो जाता है ।

 

ग्रहीतृ :- ग्रहीतृ वह होता है जो ग्रहण अथवा प्राप्त करता है । और ग्रहण तो सदा जीव या जीवात्मा ही करता है । जब साधक एकाग्र चित्त से अपना स्वंम का ही साक्षात्कार करता है तो वह चित्त आत्मा की भाँति लगने लगता है ।

 

इस प्रकार जब साधक का चित्त योगाभ्यास के बाद एकाग्र व प्रसन्न हो जाता है तो वह एक उच्च कोटि की स्फटिक मणि की भाँति चमकने लगता है । और इस अवस्था में जब साधक आपने चित्त का सम्बंध आत्मा, इन्द्रियों व पंचभूतों से करता है । तो उसका चित्त भी क्रमशः आत्मा, इन्द्रियों व पंचभूतों के समान हो जाता है । साधक की इस स्थिति को समापत्ति कहा है ।

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