यथाभिमतध्यानाद्वा ।। 39 ।।

 

शब्दार्थ :- वा, ( या ) यथाभिमत, ( जो जैसा मानता हो या जो अपने अनुसार जैसा समझे ) ध्यानत् ( उसी के ध्यान से भी )

 

सूत्रार्थ :- या इसके बावजूद जो व्यक्ति जैसा जानता है या जिसे उपयुक्त मानता है । उसे उसी का ध्यान करना चाहिए । ऐसा करने से भी चित्त एकाग्र हो जाता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में साधक को पूरी छूट प्रदान की गई है कि वह अपनी इच्छा से पूर्व में वर्णित किसी भी विधि का पालन करके अपने चित्त को एकाग्र कर सकता है । इसके लिए किसी तरह की कोई बाध्यता नहीं है ।

 

आप देखेंगे कि सूत्र संख्या तैंतीस के बाद के सभी सूत्रों में एक शब्द बार – बार दोहराया जा रहा है । वह शब्द है “वा” । जिसका अर्थ होता है इसके अतिरिक्त, इसके अलावा , या और अथवा आदि ।

यह वा शब्द यहाँ पर छूट का प्रतीक है ।

कई बार हम किसी को विकल्प के तौर पे बोलते हैं कि या तो ये काम करो या फिर वो काम करो और अगर ये भी नही करना चाहते तो इनके अतिरिक्त तुम यह भी कर सकते हो । इस प्रकार के विकल्प के रूप में ही यहाँ “वा” शब्द का प्रयोग हुआ है ।

 

प्रायः सभी साधक अलग- अलग स्तर के व अलग- अलग स्वभाव के होते हैं । इसलिए उनकी पसंद व नापसंद भी निश्चित तौर से अलग – अलग ही होगी ।

इसलिए इस सूत्र में यह छूट दी गई है कि जिसे जो भी चित्त को एकाग्र करने का उपाय या तरीका पसन्द हो वह उसी का पालन करे । वह किसी अन्य ऐसे उपाय का पालन करने की कोशिश न करे जो उसे अपने अनुकूल न लगता हो । ऐसा करने से उसका चित्त विचलित हो सकता है ।

 

इसके अतिरिक्त कुछ साधक ऐसे भी होते हैं जिनका चित्त इन उपायों से एकाग्र न होकर किसी अन्य उपाय से एकाग्र होता है । ऐसी अवस्था में उन साधकों को उन्ही उपायों का अनुसरण करना चाहिए जिनसे उनका चित्त एकाग्र होता है । अर्थात चित्त को एकाग्र करने का वह तरीका जिसका पालन करने में उनको किसी तरह की कोई कठिनाई महसूस न हो । उनको उसी उपाय का पालन करना चाहिए ।

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