विशोका वा ज्योतिष्मती ।। 36 ।।
शब्दार्थ :- वा, ( इसके अलावा ) विशोका, ( शोक से रहित ) ज्योतिष्मती, ( प्रकाशित करने वाली ) प्रवृत्ति भी मन को स्थिर करने वाली होती है ।
सूत्रार्थ :- इसके अतिरिक्त शोक से रहित प्रकाशशील प्रवृत्ति भी मन को एकाग्र करने वाली होती है ।
व्याख्या :- जिस प्रकार इससे पहले सूत्र में कही गयी विभिन्न विषयों वाली प्रवृतियों से मन को एकाग्र अथवा स्थिर किया जाता है । ठीक वैसे ही शोक से रहित प्रकाशशील प्रवृत्ति भी मन को स्थिर करने वाली होती है ।
शोक रहित का अर्थ है चिन्ता अथवा दुःख से रहित होना । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति या स्वभाव त्रिगुणों ( सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण ) पर निर्भर करता है । जब व्यक्ति में रजोगुण व तमोगुण का प्रभाव बढ़ता है तो वह शोक व मोह आदि विकारों से ग्रस्त हो जाता है । लेकिन जैसे ही उसमें सत्त्वगुण की प्रधानता आती है वैसे ही वह शोक व मोह आदि विकारों से मुक्त हो जाता है । सत्त्वगुण के बढ़ने से यह प्रकाश वाली होती है । क्योंकि सत्त्वगुण स्वंम प्रकाशशील होता है । इस प्रकार सत्त्वगुण की प्रधानता होने से साधक का अज्ञान रूपी अंधकार मिटता है और ज्ञान रूपी प्रकाश फैलता है । साधक की इस शोक रहित प्रकाशशील अवस्था से मन निर्मल व पवित्र होता है । जिससे वह शीघ्र ही स्थिर एवं एकाग्र हो जाता है ।
?कोटि नमन आचार्य जी ! ओम । इस सुंदर ज्ञान की शिक्षा से हम सबको प्रकाशमान कर सतोगुणी बनाने के इस सुंदर प्रयास के लिए आपको बारम्बार प्रणाम आचार्य जी! हरी ओ3म् ?
Thanku so much sir??
Thanku sir
Thank you Sir
Pranaam Sir!?? It is difficult to have a Sambhava in all situations of life but that is what for we sholud do yoga everyday.