विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबंधनी ।। 35 ।।

 

शब्दार्थ :- विषयवती, ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध विषयों वाली ) वा, ( या ) प्रवृति, ( अनुभूति से )  उत्पन्ना, ( उत्पन्न या पैदा हुई ) मनस:, ( मन की ) स्थिति, ( अवस्था को )  निबंधनी, ( एक जगह पर बाँधने वाली होती है । )

 

सूत्रार्थ :- शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध आदि विषयों से उत्पन्न हुई अनुभूति भी मन की स्थिति को एक स्थान पर बाँधने वाली होती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में भी मन को स्थिर करने का उपाय बताया गया है । हमारी इन्द्रियों के अलग- अलग विषय होते हैं । जैसे – नासिका से गन्ध को, जिह्वा से रस को, आँख से रूप अर्थात दृश्य को, त्वचा से स्पर्श को व कान से शब्द को धारण ( महसूस ) किया जाता है । जब हम इन इन्द्रियों में से किसी एक पर पूरी तरह से संयम ( ध्यान, धारणा व समाधि की एक स्थिति ) करते हैं तो हमें उस एक इन्द्रिय का साक्षात्कार ( पूरा – पूरा ज्ञान ) हो जाता है ।

 

उसके साक्षात्कार होने से उसके विषय में हमारे सारे सन्देह ( शक ) दूर हो जाते हैं । उस समय हमारा मन उस एक स्थिति को ही अनुभव करता है किसी अन्य को नहीं । जिस प्रकार नासिका में संयम करने से साधक को गन्ध का साक्षात्कार हो जाता है । और उसका मन उस गन्ध नामक प्रवृत्ति में ही बन्ध जाता है ।

 

ठीक इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी बारी- बारी से संयम करने से साधक को उन सबका भी साक्षात्कार हो जाता है । इस प्रकार इन्द्रियों में संयम करने से मन की स्थिति एक जगह पर एकाग्र हो जाती है ।

किसी भी एक विषय का साक्षात्कार करने  से साधक की सभी शंकाओं का धीरे – धीरे समाधान होने लगता है ।

 

जब साधक गन्ध आदि सूक्ष्म ( जो दिखाई न दे ) विषयों को सही से जान लेता है तो ईश्वर आदि के प्रति उसकी श्रद्धा धीरे – धीरे बढ़ती है । जिससे वह ईश्वर का भी साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है ।

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  1. बहुत सुंदर व्याख्या………. बहुत-बहुत धन्यवाद.

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