प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ।। 34 ।।

 

शब्दार्थ :- वा, ( अथवा / या ) प्राणस्य, ( प्राण, प्राणवायु अथवा श्वास को ) प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां, ( बार – बार बाहर निकालने और बाहर ही रोकने के अभ्यास से भी )

 

सूत्रार्थ :-   नासिका के द्वारा बार – बार प्राणवायु को बाहर छोड़कर उसे बाहर ही रोकने के अभ्यास से भी चित्त एकाग्र होता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में प्राणवायु के नियंत्रण से चित्त को एकाग्र करने का उपाय बताया गया है । जब हम शरीर में स्थित श्वास को नासिका के द्वारा बाहर निकालने का प्रयास करते हैं तो वह प्रच्छर्दन कहलाता है । और विधारण का अर्थ है श्वास को वही पर धारण करना । अर्थात जो श्वास बाहर निकाला है उसे बाहर ही रोके रखना विधारण है । इस प्रकार श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक देने से चित्त शान्त व एकाग्र होता है ।

 

यहाँ पर हम जानने का प्रयास करेंगें की श्वास व प्रश्वास क्या है ? और इनकी कितनी अवस्थाएँ होती हैं ?

 

श्वास :- जो प्राणवायु नासिका मार्ग के द्वारा शरीर के अन्दर भरी जाती है उसे श्वास कहते हैं । यानी प्राण को अन्दर लेना श्वास कहलाता है ।

प्रश्वास :- जो प्राणवायु नासिका मार्ग के द्वारा शरीर से बाहर निकालते हैं वह प्रश्वास कहलाता है । यानी प्राण को बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है ।

 

प्राणयाम करते हुए इस श्वास और प्रश्वास की तीन अवस्थाएँ होती हैं –

  1. रेचक
  2. पूरक
  3. कुम्भक

 

  1. रेचक :- रेचक का अर्थ होता है बाहर निकालना । प्राण की वह अवस्था जिसमें हम प्राण को शरीर से बाहर निकाल रहे होते हैं वह रेचक कहलाती है । जैसे – बाह्य प्राणायाम

 

  1. पूरक :- पूरक का अर्थ है अन्दर लेना । प्राण की वह अवस्था जिसमें हम प्राण को भीतर भर रहे होते हैं वह पूरक कहलाती है । जैसे – अभ्यांतर प्राणायाम

 

  1. कुम्भक :- कुम्भक का अर्थ है एक जगह पर रोकना । प्राण की वह अवस्था जिसमें हम प्राण को किसी एक स्थान पर रोक देते हैं वह कुम्भक कहलाती है । जैसे – प्राणवायु को बाहर निकाल कर बाहर ही रोके रहना बाह्य कुम्भक कहते हैं । और प्राणवायु को भीतर भर कर भीतर ही रोके रहना अभ्यांतर कुम्भक कहते हैं ।

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