मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।। 33 ।।
शब्दार्थ :- सुख, ( सुख या आनन्द ) दुःख ( कष्ट या पीड़ा ) पुण्य, ( धर्मात्मा या धार्मिक ) अपुण्य, ( पापात्मा या पापी ) विषयाणां, ( विषय या प्रकृति वाले व्यक्तियों में क्रमशः ) मैत्री, ( मित्रता या दोस्ती ) करुणा, ( कृपा या अनुकम्पा ) मुदिता, ( प्रसन्नता या खुशी ) उपेक्षाणां, ( उदासीनता की ) भावनात:, ( भावना या व्यवहार करने से ) चित्तप्रसादनम् ( चित्त प्रसन्न व एकाग्र होता है । )
सूत्रार्थ :- सुखी व्यक्तियों के प्रति मित्रता की, दुःखी व्यक्तियों के प्रति करुणा अर्थात कृपा की, पुण्य आत्माओं या सज्जन व्यक्तियों के प्रति प्रसन्नता या खुशी की व पापी या दुष्ट व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा अर्थात उदासीनता की भावना अथवा व्यवहार रखने से चित्त प्रसन्न व एकाग्र होता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त की प्रसन्नता के उपायों की चर्चा की गई है । यह सूत्र हमारे सामान्य जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है । इससे हमें यह ज्ञान होगा कि किस प्रकार के व्यक्ति के साथ हम किस प्रकार का व्यवहार करें । जिससे हम केवल अच्छा व्यवहार करने मात्र से अपने चित्त को प्रसन्न व एकाग्र कर सकेंगें ।
जिस प्रकार व्यक्तियों की अलग – अलग प्रवृति या स्वभाव होता हैं । ठीक इसी प्रकार व्यक्तियों का अलग – अलग व्यवहार भी होता है । जैसे – बच्चों – बुजुर्गों, महिलाओं – पुरुषों, गुरु – शिष्यों, गरीबों – धनवानों, सज्जन – दुष्टों के प्रति हमारा व्यवहार एक समान नही होता है । सबके साथ हम अलग – अलग व्यवहार करतें हैं ।
कुछ के साथ तो हमारा व्यवहार सही होता है जिससे हमें अच्छा लगता है । लेकिन कुछ के साथ हमारा व्यवहार स्वंम को ही दुःखी करने वाला होता है । पूरे दिनभर हम अलग – अलग प्रवृति व स्वभाव के व्यक्तियों से मिलते हैं । उनके साथ व्यवहार करतें है । यदि उन अलग – अलग व्यक्तियों के साथ हम एक ही प्रकार का व्यवहार करेंगें तो यह उचित नही होगा ।
सूत्र में चार प्रकार की प्रकृति या स्वभाव वाले व्यक्तियों के साथ चार प्रकार की भावना या व्यवहार की बात कही गई है जो इस प्रकार हैं –
- मैत्री अथवा मित्रता :- मित्रता की भावना या मित्रता का व्यवहार हमें सुखी व्यक्तियों के साथ करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति सुख की चाह रखता है । लेकिन कई बार उसकी प्राप्ति का प्रयास सही नही होता । इसलिए वह सुखी नही रह पाता । इसलिए सुख की चाह रखने वालों को सुखी व्यक्तियों के साथ मित्रता रखनी चाहिए । इससे उनको भी सुखी जीवन जीने के आवश्यक दिशा – निर्देशों के बारे में जानकारी हो जाती है । और साथ ही सुखी व्यक्तियों के साथ रहने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है । जिससे हमारा जीवन भी सुखी हो जाता है ।
इसके विपरीत यदि हम दुःखी व्यक्तियों के साथ मित्रता रखतें हैं तो हम स्वंय भी दुःखी हो जाएंगे । इसलिए दुःखियों के प्रति करुणा की भावना रखनी चाहिए ।
- करुणा :- करुणा का अर्थ है किसी के दुःख या कष्ट को देखते ही बिना किसी सोच – विचार के उसकी सहायता कर देना । जैसे – किसी व्यक्ति को सर्दी ( ठंड ) से ठिठुरते हुए देखते ही बिना अपने बारे में सोचे अपनी चद्दर या कम्बल उसको दे देना । या किसी भूखे को देखकर अपना भोजन उसे दे देना । बिना किसी सोच – विचार किए । यही करुणा होती है । यानी जब आप किसी को दुःख या कष्ट में देख कर बिना किसी विलम्ब के उसकी सहायता करते हो वह करुणा कहलाती है ।
बहुत सारे व्यक्ति करुणा और दया को एक ही समझते हैं । लेकिन वास्तव में करुणा और दया में बहुत ज्यादा अन्तर होता है । दया का अर्थ है किसी भी व्यक्ति को दुःख या कष्ट में देखकर उसके प्रति संवेदना व्यक्त करना दया होती है । जैसे – किसी व्यक्ति को सर्दी ( ठंड ) से ठिठुरता देख कर यह कहना कि ओहो देखो बेचारा ठंड से ठिठुर रहा है । इसके पास ओढ़ने के लिए कुछ भी नही है । हमें इनके लिए भी कुछ करना चाहिए या समाज में गरीबी बहुत बढ़ गई है आदि विचारों को व्यक्त करतें हैं । यह दया होती है ।
लोग सामान्य तौर पर दुःखियों को देखकर उनसे घृणा करने लगते हैं । घृणा करने से चित्त की प्रसन्नता व एकाग्रता भंग हो जाती है । और यदि दुःखियों को देखकर हमारे भीतर करुणा का भाव उत्पन्न होता है । जिससे हम दुःखियों की सहायता करते हैं । इस प्रकार दुःखी व्यक्ति की सहायता करने से हमारा चित्त प्रसन्न होता है । और दुःखियों को भी लाभ होता है ।
दया और करुणा में बहुत ज्यादा अन्तर होने से ही यहाँ पर करुणा शब्द का प्रयोग किया गया है । दया और करुणा में उतना ही अन्तर है जितना कि मन और चित्त में है । अतः विद्यार्थी करुणा और दया को एक ही मानने की भूल न करें ।
- मुदिता अथवा प्रसन्नता :- मुदिता का अर्थ है प्रसन्न होना । बहुत सारे व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनको देखते ही हम प्रसन्न या खुश हो जाते हैं । इस प्रकार की प्रसन्नता या खुशी सदा पुण्य कर्म करने वालों के प्रति होनी चाहिए । पुण्य आत्माएं वें होती है जो सदैव समाज व लोगों के हित के कार्य करते रहते हैं । जैसे – गुरु, आचार्य, माता – पिता व सामाजिक कार्यकर्ता आदि । इन सभी को देखते ही हमें प्रसन्न होना चाहिए ।
लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हम समाज में किसी पुण्य आत्मा / व्यक्ति का सम्मान होता हुआ देखते हैं तो हमें ईर्ष्या होने लगती है । ऐसा लगता है कि इसका इतना सम्मान क्यों किया जा रहा है । मेरा क्यों नही किया जा रहा आदि । इस प्रकार पुण्य आत्माओं का सम्मान देखकर जब ईर्ष्या उत्पन्न होने से हमारे भीतर द्वेष नामक क्लेश बढ़ता है । जो कि चित्त की एकाग्रता को भंग करके साधक के चित्त को दुःखी करता है । इससे योगाभ्यास में योगी सफलता प्राप्त नही कर पाता है । अतः योगी साधक को चाहिए कि पुण्य आत्माओं को देखते ही प्रसन्नता का अनुभव करें । ताकि हम उनसे कुछ अच्छा सीख पाएं ।
इससे हमारा चित्त प्रसन्न भी होगा और समाज में अच्छे व्यक्तियों का सम्मान होने से उनकी संख्या भी बढ़ेगी । यहाँ पर इन सभी भावनाओं या व्यवहार के पालन की बात केवल योगाभ्यासी के लिए ही नही हैं बल्कि समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इनका पालन करना चाहिए । तभी समाज उन्नत होगा ।
- उपेक्षा :- उपेक्षा का अर्थ होता है किसी के प्रति उदासीन अर्थात उससे दूरी बनाएं रखना । उपेक्षा चित्त प्रसादन का चौथा व अन्तिम उपाय है । अब यहाँ पर यह विचार आता है कि हम किसके प्रति उदासीनता या दूरी बनाएं रखें ? जिससे हमारा चित्त प्रसन्न हो जाए । इसके उत्तर में योगसूत्र कहता है कि जो अपुण्य या दुष्ट आत्मा या व्यक्ति होते हैं उनके प्रति हमें उदासीन होना चाहिए या उनसे हमें दूरी बना कर रखनी चाहिए । जो लोग दुष्ट होते हैं और सदा बुरे काम करते हैं यदि हम उनसे दूरी बना कर रखेंगे तो हम प्रसन्नता का अनुभव करेंगें । और यदि हम उनसे मित्रता रखेंगें तो हमें बुरे परिणाम भुगतने पड़ेंगे ।
उदाहरण स्वरूप :- दुष्ट या पापी व्यक्ति हमेशा बुरे काम करता रहता है । जो समाज के लिए हानिकारक होने के साथ – साथ गैर – कानूनी भी होते हैं । इस प्रकार से गैर- कानूनी कार्य करने वाले व्यक्ति को अपराधी कहते है ।
जब कोई अपराधी किसी भी प्रकार का अपराध करके अपने किसी परिचित या मित्र के पास जा कर छुप जाता है । और जैसे ही पुलिस उसे ढूंढ लेती है तो सबसे पहले उससे यही पूछा जाता है कि तुम अपराध करने के बाद कहा व किसके पास छुपे थे । तब वह अपराधी अपने उस परिचित या मित्र का नाम व पता बता देता है जिसके पास वह छुपा हुआ था । उसके बाद आप सभी जानते हैं कि उसे भारतीय कानून की धारा 120 बी के तहत पकड़ लिया जाता है । और उस पर एक अपराधी को आश्रय देने व उसकी सहायता करने का आरोप लगता है । जिसके लिए कानून में दण्ड ( सजा ) का प्रावधान है ।
इस प्रकार यदि हम एक अपराधी, दुष्ट, या पापी व्यक्ति से मित्रता रखेंगें तो यह हमारे लिए काफी दुःखदायी होगा । और यदि हम अपराधी या दुष्ट व्यक्तियों से दुश्मनी रखेंगें या उनकी निंदा करेंगें तो वो हमें सदैव हानि पहुँचाने की कोशिश करेंगें । इसलिए पापी व्यक्तियों के साथ न ही मित्रता रखो और न ही उनसे दुश्मनी रखो ।
यह दोनों ही प्रकार की भावनाएं हमारे लिए हानिकारक होती है । अतः पापी व दुष्टों के साथ उपेक्षा अर्थात उदासीनता का भाव रखना चाहिए ।
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जो पापी या दुष्ट लोग है वह अपने आप को सम्मान न मिलने से उपेक्षित समझने लगेंगे । जिससे वह अपनी दुष्ट प्रवृति को छोड़कर एक सभ्य व्यक्ति बनने का प्रयास करेंगें । और इसके विपरीत यदि पापी व दुष्टों को समाज में मान व सम्मान मिलेगा तो वह अपनी दुष्टता को सही मानकर लोगों को और भी ज्यादा पीड़ित करेंगे ।
एक और उदाहरण से हम इसको समझने का प्रयत्न करते हैं – आपने अक्सर देखा होगा कि जब भी कोई बड़ा अपराधी जेल से जमानत ( बेल ) पर या सजा पूरी करके बाहर आता है । तो सैकड़ो गाड़ियों में हजारों लोग उसका स्वागत करने के लिए जेल के बाहर खड़े होते हैं । जब वह अपराधी देखता यह सब देखता है तो उसे लगता है कि वह लोगों का मसीहा ( सहायता करने वाला ) है । लोग मुझे पसंद करते हैं । और यदि लोग मुझे पसंद करते हैं तो जरूर मैंने सही काम किए होंगे ।
इसलिए वह सोचता है कि वह सब सही कर रहा है । और इस प्रकार एक अपराधी को और बड़े अपराध करने के लिए बल ( ताकत या प्रेरणा ) मिलता है । समाज में अपराध के बढ़ने का यह सबसे बड़ा कारण है । इसके विपरीत यदि अपराधी को किसी भी प्रकार का मान- सम्मान मिलना बन्द हो जाए तो उसे लगेगा कि मेरे बुरे कार्यों के कारण समाज में मेरी उपेक्षा हो रही है ।
इस उपेक्षा के कारण वह अपनी दुष्टता को छोड़ने के लिए बाध्य ( विवश ) हो जाएगा । और हमारा समाज पाप मुक्त हो जाएगा । इससे सभी का चित्त एकाग्र व प्रसन्न रहेगा ।
निष्कर्ष :- इस प्रकार चित्त प्रसादन के उपायों का पालन करके कोई भी व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र व प्रसन्न अवस्था में रख सकता है । केवल चित्त प्रसादन के पालन से भी कोई उच्च कोटि का साधक योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है । अतः चित्त प्रसादन के उपायों की योग साधना में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है । आवश्यकता केवल इनके पालन की है ।
इसलिए इस सूत्र में महर्षि पतंजलि कहतें है कि योगी साधक को व्यक्तियों की प्रकृति या स्वभाव के अनुसार ही उनसे व्यवहार करना चाहिए । इससे हमारा चित्त प्रसन्न व एकाग्र होगा । जिससे हम योगमार्ग में सफलता प्राप्त कर पाएँगे ।
विशेष :- यदि हम योगदर्शन के इस सूत्र को अपने जीवन में आत्मसात ( अपना लें ) करलें तो निःसन्देह यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाएगी । सभी धार्मिक अथवा पुण्य व्यक्तियों व महिलाओं सम्मान होगा । दुःखियों के दुःख दूर होंगे । व दुष्टों या पापियों का पूर्णत: अभाव होगा । योगसूत्र के केवल इस एक सूत्र से ही यदि समाज में इतना परिवर्तन आ सकता है तो पूरे योगसूत्र के पालन से तो निश्चित रूप से व्यक्ति अपने जीवन के परम लक्ष्य अर्थात समाधि या मुक्ति को प्राप्त कर सकता है ।
?Prnam Aacharya ji! Yogshutra 33 is well elaborated with the panacea of peacefull mind. Thank you for giving such a nice explanation. . Prnam Aacharya ji ?
Now it’s become so easily to understand for us thanku sir??
अति सुंदर वृतांत आचार्य जी इसके लिए हम आपके बहुत बहुत आभारी हैं
Thank you so much Somveer ji for updating and motivating us persistently ???
Thank you sir
Pranaam Sir! This is personally my favorite Sutra , as it gives a direction as to how we should deal with different kind of people and lead a healthy and peaceful life??
That right
Sir apne jo sutr no 33 hai usme dya ka jo example diya hai vo example us word ke meaning ko khi na khi chang kar rha hai sir.sorry and plz check again …
कपिल, कृपया इस लिंक पर अपने संदेह के बारे में पूछें : https://theyogatalk.com/t/yoga-sutra-33/146
Dear Kapil
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि सूत्र संख्या 33 में दया शब्द का प्रयोग ही नही हुआ है । सूत्र को दोबारा पढ़ो। वहाँ करुणा लिखा है न कि दया । और दया व करुणा एक जैसे लगते हैं पर होते नहीं हैं । जैसे मोहन और सोहन बोलने में एक जैसे लगते हैं लेकिन होते अलग अलग हैं ।
आपके द्वारा सुंदर तरीके से समझाया गया है।
ॐ गुरुदेव*
चित्त की प्रसन्नता को बनाए रखने के लिए महर्षि पतंजलि का यह सूत्र आज के समय में अति प्रसंगिक है। आपके द्वारा की गई इस सूत्र की व्याख्या अतुलनीय है।