दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव: ।। 31 ।।
शब्दार्थ :- दुःख, ( दुःख ) दौर्मनस्य, ( इच्छापूर्ति न होने से उत्पन्न क्षोभ ) अङ्गमेजयत्व, ( शरीर के अंगों में कंपन होना ) श्वास, ( इच्छा के विरुद्ध प्राणवायु का अन्दर आना ) प्रश्वास, ( इच्छा के विरुद्ध प्राणवायु का बाहर निकलना ) विक्षेपसहभुव: ( पूर्व वर्णित विघ्नों के साथ होने वाले उप विघ्न हैं ।
सूत्रार्थ :- दुःख, इच्छापूर्ति न होने से उत्पन्न क्षोभ, अंगों में कंपन होना, प्राणवायु का इच्छा के विरुद्ध अन्दर व बाहर निकलना पूर्व वर्णित नौ विघ्नों के सहयोगी अर्थात उप विघ्न हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में पूर्व वर्णित नौ विघ्नों के सहयोगी या उप विघ्नों की चर्चा की गई है । इनकी संख्या पाँच बताई है –
- दुःख
- दौर्मनस्य
- अङ्गमेजयत्व
- श्वास
- प्रश्वास ।
- दुःख :- दुःख का अर्थ है शरीर व मन की वह अवस्था जिसमें व्यक्ति कष्ट या पीड़ा का अनुभव करे । वह दुःख कहलाता है । इन दुःखों की ताप भी कहते हैं । यह दुःख या ताप मुख्य रूप से तीन प्रकार के माने गए हैं – 1. आध्यात्मिक दुःख 2. आधिभौतिक दुःख 2. आधिदैविक दुःख ।
- आध्यात्मिक दुःख ( दैहिक ) :- आध्यात्मिक दुःख वह दुःख होते हैं जो हमें शारीरिक व मानसिक रूप से कष्ट पहुँचाते हैं । इनको दैहिक दुःख इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हमारी देह अर्थात शरीर में होते हैं । जैसे – बुखार, सरदर्द, उल्टी- दस्त लगना, बी.पी., मधुमेह आदि रोग होना शारीरिक दुःख हैं । इसी प्रकार मानसिक दुःख भी होते हैं जैसे – चिन्ता, तनाव, अनिद्रा व अवसाद आदि ।
- आधिभौतिक दुःख ( भौतिक ) :- वह कष्ट या दुःख जो हमें भौतिक पदार्थों से प्राप्त होते हैं आधिभौतिक दुःख कहलाते हैं । भौतिक का अर्थ है सुख भोग की सांसारिक वस्तुएँ जैसे – गाड़ी, पशु, बिजली के उपकरण आदि । इन सबसे प्राप्त होने वाले जो कष्ट अथवा दुःख हैं वह आधिभौतिक दुःख कहलाते हैं । जैसे – हिंसक पशुओं या जानवरों के द्वारा चोट पहुँचना, सड़क दुर्घटना से मिलने वाला कष्ट, बिजली के करंट से मिलने वाला दुःख आदि ।
- आधिदैविक दुःख ( दैविक ):- वह दुःख या कष्ट जो हमें अलौकिक कारणों से मिलता है आधिदैविक दुःख कहलाता है । सूर्य, जल व उल्का पिण्डों आदि से मिलने वाला दुःख । जैसे- सर्दी- गर्मी से मिलने वाला कष्ट, अकाल व अत्यधिक वर्षा से मिलने वाला कष्ट, व भूकम्प आदि से मिलने वाला दुःख ।
इन सभी दुःखों से पीड़ित होने के बाद व्यक्ति अप्रसन्नता का अनुभव करता है । दुःख के कारण साधक प्रसन्न नही रह पाता जिससे वह दुःख साधना में बाधा उत्पन्न करता है । बाधा उत्पन्न करने के कारण ही दुःख को उप विघ्न माना गया है । इसलिए साधक दुःख से बचने या दुःख के नाश के लिए प्रयासरत रहता है । यही दुःख का स्वरूप है ।
- दौर्मनस्य :- दौर्मनस्य का अर्थ है जब हम किसी कार्य या व्यक्ति से कोई इच्छा या आकांक्षा ( आशा ) रखतें हैं । और यदि किसी भी कारण से वह इच्छा पूरी नही हो पाती है । तब उस इच्छापूर्ति के पूरा न होने से हमारे चित्त में क्षोभ अर्थात खिन्नता आती है । चित्त के खिन्न होने की अवस्था को ही दौर्मनस्य कहते हैं । साधक का चित्त खिन्न हो जाने से उसके चित्त की स्थिरता भंग हो जाती है । चित्त के अस्थिर होने से साधक योगमार्ग में आगे नही बढ़ पाता है । इसलिए दौर्मनस्य को भी योगमार्ग में बाधक मानते हुए इसे उपविघ्न माना है ।
- अङ्गमेजयत्व :- अङ्गमेजयत्व का अर्थ है शरीर के अंगों में कम्पन होना । जब किसी व्याधि या इन्द्रियों की कमजोरी के कारण हमारे अंगों में कम्पन होती है । तब शरीर की यह अवस्था अङ्गमेजयत्व कहलाती है । अंगों में कम्पन होने को हम शारीरिक अस्थिरता भी कह सकते हैं । और जब शरीर में स्थिरता नही आएगी तब तक हमारा चित्त भी स्थिर नही हो सकता । इस प्रकार शरीर व चित्त के अस्थिर होने से साधक को समाधि की प्राप्ति नही होती । इसलिए अङ्गमेजयत्व को भी योग साधना में बाधक तत्त्व मानते हुए इसकी गणना उप विघ्नों में की है ।
- श्वास :- प्राणवायु या ऑक्सीजन को नासिका मार्ग से अन्दर लेना श्वास कहलाता है । श्वास पर नियंत्रण न होने के कारण स्वंम की इच्छा के विरुद्ध प्राणवायु का अपने आप अन्दर आ जाना । श्वास नामक उप विघ्न होता है । जब तक साधक का अपने श्वास पर नियंत्रण नही होगा तब तक वह कैसे योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है ? इसलिए श्वास पर नियंत्रण न होने को योगमार्ग में बाधक माना गया है ।
- प्रश्वास :- प्राणवायु को नासिका मार्ग द्वारा बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है । प्रश्वास पर नियंत्रण न होने के कारण अन्दर की प्राणवायु का स्वंम की इच्छा के विरुद्ध अपने आप बाहर निकल जाना प्रश्वास नामक उप विघ्न होता है । इसे भी योगमार्ग में बाधक माना जाता है ।
अतः पहले सूत्र में वर्णित नौ मुख्य विघ्नों या बाधक तत्त्वों के साथ – साथ इन पाँचों को भी योगमार्ग में बाधक मानते हुए इन्हें उप विघ्न कहा है । इस प्रकार योगसूत्र की योग साधना में नौ मुख्य विघ्न एवं पाँच उप विघ्न माने गए हैं । आगे इन विघ्नों को दूर करने के उपाय बताएं गए हैं ।
Sir thanku ??
?Prnam Aacharya ji ! Thank you for nice explanation of sub interruptions. ….. Prnam Aacharya ji ?
?Prnam Aacharya ji. . Dhanyavad ?
Parnam Aacharya ji
Very helpful topic
Thanks
Thank you sir
बहुत ही अच्छी व्याख्या
Nice ..sir
Very nice जी ।ॐ।
Pranaam Sir! Thank you for this explanation.
Nice explanation of upevigana guru ji.
mohanlalji@.gmail yoga teacher
Good Knowledge for Students
Thanks