व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यावि रतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया: ।। 30 ।।

 

शब्दार्थ :- व्याधि, ( रोग या बीमारी ) स्त्यान, ( अकर्मण्यता अथवा काम से मन चुराना ) संशय, ( आशंका या सन्देह ) प्रमाद, ( लापरवाही ) आलस्य, ( सुस्ती ) अविरति, ( विषयों में राग अथवा भोगों में आसक्ति ) भ्रान्तिदर्शन, ( विपरीत ज्ञान या गलत जानकारी ) अलब्धभूमिकत्त्व, ( चित्त का एकाग्र न होना या समाधि की प्राप्ति न होना ) अनवस्थितत्त्व, (  एकाग्रता या समाधि की स्थिति का छूट जाना या समाधि की अस्थिर अवस्था ) चित्तविक्षेपा:, ( चित्त को विक्षिप्त करने वाले ) ते, ( वे ही ) अन्तराया:, ( योग के विघ्न या योग के बाधक तत्त्व हैं । )

 

सूत्रार्थ :-  रोग, अकर्मण्यता, सन्देह, लापरवाही, सुस्ती, भोगों में आसक्ति, विपरीत ज्ञान, समाधि का न लगना व समाधि की अस्थिर अवस्था ये सभी चित्त को विक्षिप्त करने वाले विघ्न या बाधाएं हैं।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त को विक्षिप्त कर योग मार्ग को अवरुद्ध करने वाले नौ बाधक तत्त्वों का वर्णन किया गया है । जिनका वर्णन इस प्रकार है –

 

  1. व्याधि :- व्याधि का अर्थ है शरीर में किसी प्रकार के रोग या बीमारी का हो जाना । जब हमारे तीनों दोषों ( वात, पित्त, कफ ) में किसी प्रकार की विषमता आती है । तब हमारा शरीर किसी न किसी रोग से ग्रस्त हो जाता है । उससे हमारी इन्द्रियों की कार्य क्षमता भी घटती है । व्याधि के कारण हम योग मार्ग में आगे नही बढ़ पाते हैं । योग मार्ग में निरन्तर अग्रसर होने के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक होता है । इसलिए व्याधि को योग मार्ग में एक प्रकार की बाधा माना गया है ।

 

  1. स्त्यान :- स्त्यान अर्थात अकर्मण्यता का अर्थ है कार्य में अनुत्साह ( उत्साह का न होना ) होना । या काम से मन चुराना । जब साधक में उत्साह की कमी होती है तो उसका योग साधना करने का मन नही करता । वह हमेशा काम से बचने के बहाने ढूंढता रहता है । इस प्रकार बार – बार योग साधना से बचने का प्रयास करते रहने से वह साधना में सफलता प्राप्त नही कर पाता है । इसलिए स्त्यान को भी योग मार्ग में बाधक माना गया है ।

 

  1. संशय :- संशय का अर्थ है सन्देह या शक होना । योग साधना का अभ्यास करते समय साधक को अनेकों सन्देह होते है । जैसे – मैं योग मार्ग में सफलता प्राप्त कर पाऊँगा या नही ? मेरा साधना करने का तरीका सही है या नही ? योग साधना से मैं अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर पाऊँगा या नही ? आदि । जब इस प्रकार के सन्देह या शक साधक के मन में आते हैं तो वह योग साधना पर विश्वास नहीं कर पाता है । जिससे उसमें भ्रम की स्थिति बनी रहती है । इस प्रकार के सन्देह से साधक कभी भी योग मार्ग में प्रणीत नही हो सकता है । इसलिए सन्देह को भी योग साधना में विघ्न अथवा बाधा माना है ।

 

  1. प्रमाद :- प्रमाद का अर्थ है लापरवाही करना । जैसे – योग साधना करते हुए लापरवाही करना, अभ्यास को अधूरा छोड़ना, नियमित रूप से अभ्यास न करना, सावधानी न रखना आदि । इस प्रकार जब लापरवाही के साथ हम योग साधना करतें हैं तो उसमें हमें सफलता प्राप्त नही होती है । इसलिए प्रमाद को भी योग अन्तराय अर्थात योग मार्ग की बाधा बताया है ।

 

  1. आलस्य :- आलस्य का अर्थ है सुस्त स्वभाव का होना । आलस्य का मुख्य कारण शरीर में तमोगुण की अधिकता होती है । शरीर में तमोगुण का प्रभाव बढ़ने व सत्त्वगुण का प्रभाव कम होने से शरीर में सुस्ती आती है । सुस्ती आने से शरीर में भारीपनचिड़चिड़ापन आता है । जिससे साधक का शरीर साधना में प्रवृत्त नही हो पाता है । और वह सुस्ती में ही पड़े रहना पसन्द करता है । इसलिए इसको भी योग मार्ग में बाधक माना है ।

 

  1. अविरति :- अविरति का अर्थ है वैराग्य का अभाव । अर्थात विषय भोगों की इच्छा का प्रबल होना । जब साधक की विभिन्न विषयों को भोगने में आसक्ति ( इच्छा ) होती है तब वह अवस्था अविरति कहलाती है । विषयभोगों की इच्छा होने से साधक की योग साधना भंग होती है । इसलिए अविरति को भी योग मार्ग में बाधक माना गया है ।

 

  1. भ्रान्तिदर्शन :- भ्रान्तिदर्शन का अर्थ है विपरीत ज्ञान या गलत जानकारी का होना । कई बार साधक विपरीत ज्ञान या गलत जानकारी के कारण साधना के वास्तविक स्वरूप को नही समझ पाता है । जिससे वह लाभदायक साधनों को हानिकारक व हानिकारक साधनों को लाभदायक समझने की भूल कर बैठता है । जिसके चलते वह योग साधना में सफलता प्राप्त नही कर पाता है । इसलिए भ्रान्तिदर्शन को भी योग मार्ग में बाधक तत्त्व माना है ।

 

  1. अलब्धभूमिकत्त्व :- अलब्धभूमिकत्त्व का अर्थ है चित्त का एकाग्र न होना या समाधि की प्राप्ति न होना । कई बार साधक को निरन्तर योग साधना करने से भी समाधि की प्राप्ति नही होती । जिससे वह अनुत्साहित हो जाता है । इस अनुत्साह के कारण उसकी साधना में रुचि कम हो जाती है । इससे वह योग मार्ग में सफलता प्राप्त नही कर पाता है । इसलिए इसको भी बाधक तत्त्वों में रखा गया है ।

 

  1. अनवस्थितत्त्व :- अनवस्थितत्त्व का अर्थ है एक बार समाधि लगने के बाद पुनः ( दोबार से ) समाधि का भंग हो जाना । अर्थात समाधि को स्थिर न रख पाना । योग साधना के समय बहुत बार ऐसा होता है कि कुछ समय के लिए समाधि लग जाती है । लेकिन चित्त के अस्थिर होने पर वह भंग हो जाती है । इस प्रकार साधक समाधि में अपने आप को स्थिर नही कर पाता है । इसलिए इसको भी योग मार्ग में बाधक माना गया है ।

महर्षि पतंजलि ने ऊपर वर्णित सभी नौ अन्तरायों को योग मार्ग में बाधा उत्पन्न करने वाले विघ्न माना है। साधक को इन सभी विघ्नों या बाधाओं से बचना चाहिए ।

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  1. ?Prnam Aacharya ji ! Yogshutra ke in an antrayo ka vrnan kr aap hme in dosho se bchchhe ka punh- punh smaran karante hai iske liye aapka dhanyavad ?

  2. बहुत सरल तरीके से सुंदर वर्णन सर्!!!!धन्यवाद?

  3. First of all thank you so much sir for making videos for us and these videos are very helpful and easy to learn the topics of yoga.
    (You’re doing great job sir don’t have words for thanking you)

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