तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम् ।। 3 ।।

 

शब्दार्थ :- तदा ( तब ) द्रष्टु ( द्रष्टा, जीवात्मा की ) स्वरूपे ( अपने वास्तविक स्वरूप में ) अवस्थानम् ( अवस्थिति, स्थिति होती है )

 

सूत्रार्थ :- जब योगी अपनी सभी चित्त वृतियों का सर्वथा निरोध कर देता है तो उसे समाधि की प्राप्ति  होती है। तब उस समाधि की अवस्था में जीवात्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उसमें प्रतिष्ठित अथवा स्थित हो जाता है।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में समाधि के प्रतिफल का वर्णन किया गया है। जब योगी समाधि  की स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात समाधिस्थ हो जाता है तो उसे अपने वास्तविक  ( सही ) स्वरूप ( स्थिति ) का ज्ञान हो जाता है।

 

साधक अपने स्वरूप में तभी स्थित होता है जब उसकी समस्त चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है।

उदाहरण स्वरूप :-

जिस प्रकार तालाब के पानी की प्रकृति शांत होती है। परन्तु तेज हवा के बहाव के कारण जल में अनेक तरंगें उठती रहती हैं। और हवा के रुकते ही वह तरंगें भी स्वंम ही समाप्त हो जाती है।

 

ठीक इसी प्रकार जब साधक की चित्त वृत्तियाँ प्रभावी रहती है, तब तक चित्त में भी भिन्न- भिन्न प्रकार के संस्कारों की तरंगें उठती रहती है। और जैसे ही सभी वृत्तियों का निरोध होता है, वैसे ही साधक के चित्त में जो स्वंम के कर्तापन ( करने वाला ) का जो भाव है। उसकी भी समाप्ति हो जाती है। इस अवस्था में वह स्वंम को प्रकृति या अन्य पदार्थों से अलग समझने लगता है।

इससे उसके चित्त में ‘मैं सुखी हूँ’, मैं दुखी हूँ’,मैं स्वस्थ हूँ’, ‘मैं बीमार हूँ आदि भाव पूर्णतः समाप्त हो जाते है।

इसके परिणाम स्वरूप साधक समस्त क्लेशों से छूट जाता है।  और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का भली – भाँति ज्ञान हो जाता है।  तब आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का दर्शन होता है। ये स्थिति आनन्द अथवा मुक्ति की है। जैसे कि कैवल्य में रहती है।

उपरोक्त अवस्था से भिन्न व्युत्थानकाल में पुरूष का स्वरूप कैसा होता है ? इसका वर्णन अगले सूत्र में किया गया है।

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  1. ॐ *?? अति सुन्दर व्याख्या की है आपने गुरुदेव, बहुत ही लाभदायक व ज्ञानवर्धक विश्लेषण किया है आपने।

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