तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ।। 25 ।।
शब्दार्थ :- तत्र, ( उस ईश्वर में ) सर्वज्ञबीजम्, ( सर्वज्ञता का कारण अर्थात ज्ञान ) निरतिशयम् ( सबसे ऊँचा / सर्वोच्च है । )
सूत्रार्थ :- उस ईश्वर में सब कुछ ( मूल रूप में ) जानने का जो ज्ञान है वह सबसे ज्यादा या सर्वोच्च है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में ईश्वर के असीमित ज्ञान की चर्चा की गई है । इसमें ईश्वर को ‘निरतिशय’ कहा है । निरतिशय को जानने से पहले हम इसके विपरीत शब्द को जान लेते है । जिससे इसको समझने में आसानी रहेगी । निरतिशय का विपरीत ‘सातिशय’ होता है । सातिशय का अर्थ होता है जिससे बढ़कर कोई अन्य / दूसरा हो । वह किसी भी क्षेत्र में हो सकता है जैसे – ज्ञान, बल, उत्साह, धैर्य व अभ्यास आदि में हर कोई किसी न किसी से बढ़कर क्रमशः ज्ञानी, बली, उत्साही, धैर्यवान, व अभ्यासी हो सकता है ।
ठीक इसके विपरीत निरतिशय का अर्थ है जिससे बढ़कर कोई अन्य / दूसरा न हो । जो सबसे ज्यादा ज्ञानवान हो वह निरतिशय कहलाता है । ईश्वर ज्ञान में सर्वश्रेष्ठ / सर्वोच्च होने से निरतिशय कहलाते हैं ।
वैसे तो ज्ञान सभी में होता है । लेकिन उसका दायर सीमित होता है । ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात सब कुछ जानने वाला होने से उसका ज्ञान सर्वोच्च है । इसीलिए यहाँ पर ईश्वर को निरतिशय कहा है ।
जिस प्रकार ईश्वर की ज्ञान में पराकाष्ठा है ठीक वैसे ही धर्म, वैराग्य, यश और ऐश्वर्य आदि में भी है ।
?Prnam Aacharya ji ! Patanjali Yog Sutra me Eeshvar ke uchh swarup ki vyakhya sunder v suvyavasthit rup se btayi gyi hai.iske liye aapka dhanyavad Aacharya ji !?
Sunder
Thanku so much sir
Thanks again sir
Pranaam Sir! Ishwar beautifully defined in one word……simply amazing.
Thanks guru ji for explanation about isver expanded gayana.
ॐ गुरुदेव* इसका तात्पर्य है कि ईश्वर सभी के गुरुओं का भी गुरु है।
ॐ गुरुदेव*
ईश्वर में सर्वज्ञता का गुण है वह सब कुछ जानता है।