श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ।। 20 ।।
शब्दार्थ :- श्रद्धा, ( रुचि, विश्वास ) वीर्य, ( उत्साह, पुरुषार्थ ) स्मृति, ( पूर्व में अनुभव किए गए संस्कार ) समाधि, ( चित्त की एकाग्रता ) प्रज्ञा, ( बुद्धि की उन्नत अवस्था ) पूर्वक, ( क्रमानुसार ) इतरेषाम्, ( अन्यों से भिन्न समाधि की अवस्था होती है )
सूत्रार्थ :- विदेह और प्रकृतिलय योगियों से भिन्न ( अलग ) योगियों की जो असम्प्रज्ञात समाधि होती है । वह समाधि रुचि, उत्साह, स्मरण, एकाग्रता और ऋतम्भराप्रज्ञा ( बुद्धि की उन्नत अवस्था ) पूवर्क होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में योगी साधक की उपायप्रत्यय नामक समाधि का वर्णन किया गया है । जो विदेह व प्रकृतिलय योगी नही होते उनको किस प्रकार से इस उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है ? इसका वर्णन किया गया है ।
इस समाधि की प्राप्ति हेतु पाँच उपाय बताए गए हैं-
- श्रद्धा
- उत्साह
- स्मृति
- समाधि
- प्रज्ञा ।
इन सभी उपायों का क्रमशः पालन करने से ही उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है ।
- श्रद्धा :- श्रद्धा को उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति का पहला साधन माना है । श्रद्धा का अर्थ है किसी भी कार्य को पूरी रुचि व विश्वास के साथ करना । किसी भी अनुष्ठान ( अच्छे कार्य ) के प्रति हमारी रुचि तभी बनती है जब कोई कार्य सत्य से प्रेरित होता है।
सत्य का ज्ञान होने पर साधक की उस ज्ञान को पाने की इच्छा तीव्र हो जाती है । कार्य के पूर्ण होने पर मुझे अच्छे फल की प्राप्ति होगी इस प्रकार की आशा से श्रद्धा उत्पन्न होती है । तभी हम पूरे विश्वास और रुचि के साथ उस कार्य को पूर्ण करते हैं ।
उदाहरण स्वरूप :- जब हम किसी असाध्य ( भयंकर ) बीमारी से परेशान होते हैं । और बहुत सारे डॉक्टरों के पास जाने पर भी वह बीमारी ठीक न होने पर जब हम पूरी तरह से त्रस्त ( दुःखी ) हो जाते हैं ।
उस समय कोई हमारा परिचित हमसे कहे कि मैं एक ऐसे प्रसिद्ध वैद्य को जनता हूँ जो पिछले पच्चीस (25) वर्षों से इसी बीमारी की चिकित्सा कर रहा है । और आज तक जितने भी रोगी उसके पास गए हैं वे सब के सब पूरी तरह से ठीक हुए हैं । उस समय उस वैद्य के प्रति हम पूरी श्रद्धा रखते हुए उसके पास जाते हैं और उसके द्वारा बताए गए उपायों का पूरे विश्वास और रुचि के साथ पालन करते हैं ।
क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान हो गया है कि वह वैद्य बहुत गुणवान है । और उसके बताए हुए उपायों से मैं पूरी तरह से ठीक हो जाऊँगा । जब इस प्रकार का विश्वास किसी के प्रति होता है तब श्रद्धा उत्पन्न होती है । और उस श्रद्धा से ही उस कार्य को करने की रुचि बनती है । श्रद्धा हमारे मन को प्रसन्न रखती है ।
ठीक इसी प्रकार जब योगी साधक को यह पता चलता है कि योग के अनुष्ठान से मुझे परमानन्द की प्राप्ति होगी । तब वह योग मार्ग में बिना किसी विलम्ब के आरूढ़ ( अपनी कमर कस लेता है ) हो जाता है ।
- वीर्य :- वीर्य का अर्थ है उत्साह । इसे उपायप्रत्यय समाधि का दूसरा साधन माना है । उत्साह के बिना कोई भी महान कार्य सम्भव नहीं हो सकता । उत्साही व्यक्ति कठिन से कठिन कार्य को भी आसानी से पूरा कर लेता है । चाहे मार्ग में कितनी भी बाधाएं क्यों न आ जाएं । वह कभी भी बाधाओं से नही घबराता है ।
अपने उत्साह के बल पर वह विफलता को सफलता में बदल देता है । इसलिए उपायप्रत्यय समाधि की प्राप्ति हेतु इसको भी एक सशक्त ( मजबूत ) साधन माना है । इस उत्साह के लिए पहले श्रद्धा का होना अति आवश्यक है । श्रद्धा के कारण ही उत्साह उत्पन्न होता है । जब तक श्रद्धा नही होती तब तक उत्साह का जगना कठिन है ।
- स्मृति :- स्मृति को उपायप्रत्यय समाधि का तीसरा साधन माना है । जब साधक श्रद्धाभाव और उत्साह के साथ योग मार्ग पर आगे बढ़ता है तब उसको अपने अनुरूप अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं । उन अच्छे परिणामों से अच्छे संस्कारों की उत्पत्ति होती है ।
चित्त में अच्छे संस्कारों के कारण उत्तम स्मृति की प्राप्ति होती है और इस उत्तम स्मृति को समाधि प्राप्ति का साधन माना गया है । श्रद्धा और उत्साह के सहयोग से साधक की स्मृति शक्ति प्रबल हो जाती है ।
जैसे- कोई साधक अपने चित्त को स्थिर करने के लिए धारणा या ध्यान का अभ्यास करता है । और वह उसमें सफलता प्राप्त कर लेता है । इससे आगे कभी भी चित्त के अस्थिर होने पर वह पुनः उसी स्मृति ( स्मरण ) द्वारा उसे फिर से स्थिर करने में समर्थ हो जाता है ।
- समाधि :- उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति में समाधि को चौथा साधन माना है । स्मृति के प्रबल होने पर ज्ञान के संस्कारों का उदय ( जागरण ) होता है । जिनके द्वारा चित्त की एकाग्रता और स्थिरता बढ़ती है । चित्त के एकाग्र होने से साधक सम्प्रज्ञात समाधि की उच्च अवस्था में पहुँच जाता है ।
सम्प्रज्ञात समाधि की यही उच्च अवस्था असम्प्रज्ञात समाधि का साधन बनती है । बिना सम्प्रज्ञात समाधि के असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
- प्रज्ञा :- प्रज्ञा उपायप्रत्यय समाधि का पाँचवा व अन्तिम साधन है । जब सम्प्रज्ञात समाधि की उच्च अवस्था में साधक जाता है । तब वह प्रज्ञा की उत्कृष्ट ( उन्नत ) अवस्था को प्राप्त कर लेता है । प्रज्ञा की इस उत्कृष्ट अवस्था को ही ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है । इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागृत होने पर साधक को प्रकृति – पुरुष का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । इस विवेक ज्ञान से परवैराग्य की उत्पत्ति होती है और इस परवैराग्य द्वारा साधक असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार विदेह व प्रकृतिलय योगियों से अलग जो साधक हैं वह इस प्रकार उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करते हैं ।
?प्रणाम आचार्य जी ! कोटि वंदन ! सूत्र 20 मे उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि के इन पांच साधनों की स्पष्ट व सुन्दर व्याख्या के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य जी ! ?
Thanku sir??
Thank you sir
Thanks again sir
Pranaam Sir! You have given a very easy and clear explanation of this Sutra……helps us understand better.
Nice explanation of sarda by example guru ji
Greatest Sir
Thanks sir…
ॐ गुरुदेव!
बहुत ही सुन्दर ,सरल व स्पष्ट तरीके से आपने समझाने का प्रयत्न किया है।आपको कोटि_ कोटि धन्यवाद।
Thanks sir…..