योगश्चितवृत्तिनिरोधः ।। 2 ।।
शब्दार्थ :- योग ( समाधि ) चित्त ( चित्त अन्तः करण का ही एक अंग है। जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार, और चित्त होते है। इन सभी अंगों में एकमात्र चित्त ही है जिसमें संस्कारों का संग्रह होता है )
वृत्ति = “ वर्ततेऽनया इति वृतिः ” अर्थात जिनसे प्रेरित होकर व्यक्ति भिन्न- भिन्न प्रकार का व्यवहार, या क्रियाकलाप करे ।
निरोध ( रुकना, रोकना, अथवा अवरोध करना )
सूत्रार्थ :- चित्त की सभी वृत्तियों का पूर्ण रूप से रुक जाना ही योग है। यें वृत्तियाँ चित्त में संग्रहित संस्कारों से उत्पन्न होती हैं। योगसूत्र में इसी को योग अथवा समाधि कहा है।
व्याख्या :-इस सूत्र में योग के परम लक्ष्य अर्थात समाधि की प्राप्ति को बताया गया है। जब साधक अपने चित्त की सभी वृत्तियों का सर्वथा अवरोध कर देता है, तब वह समाधिस्थ हो जाता है। यही योग का लक्ष्य है।
यह सूत्र योग की परिभाषा के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
चित्त का स्वरूप :-
चित्त अन्तः करण का ही एक अंग है जिसमें हमारे सभी संस्कारों, स्मृतियों का संग्रह होता है। यह चित्त सत्त्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण से मिलकर बना एक पदार्थ है। जिससे चित्त तीन प्रकार के स्वभाव वाला ( प्रकाशशील, गतिशील, और स्थैर्यशील ) अर्थात त्रिगुणात्मक होता है।
इसी त्रिगुणात्मक स्वभाव के कारण चित्त के तीन रूप होते हैं;- 1. प्रख्या, 2. प्रवृति, और 3. स्थिति ।
‘प्रख्या’ सत्त्वगुण प्रधान, ‘ प्रवृत्ति’ रजोगुण प्रधान, व ‘स्थिति’ तमोगुण प्रधान होती है।
- ‘प्रख्या’ :- जब चित्त में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है तो उसमें ज्ञान का प्रकाश होने से व्यक्ति में धर्म, ज्ञान, और वैराग्य की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था में व्यक्ति शुभ कार्यों में प्रवृत ( अग्रसर ) रहता है।
- ‘प्रवृत्ति’ :- जब चित्त में रजोगुण की प्रधानता होती है तो व्यक्ति श्रमशील स्वभाव वाला होता है । जिसके फलस्वरूप वह समाज में मान– सम्मान, धन– दौलत, यश– कीर्ति को प्राप्त करने में प्रवृत्त रहता है।
- ‘स्थिति’ :- जब व्यक्ति के चित्त में तमोगुण प्रधान होता है तो वह आलस्य, प्रमाद, तंद्रा, अज्ञान, व अकर्मण्यता आदि भावों में प्रवृत्त होता है। इस अवस्था में वह अज्ञानता के वशीभूत होकर सभी निकृष्ट ( निषेध ) कार्य करता है ।
चित्त के संस्कार :-
चित्त हमारे सभी विचारों व संस्कारों का संग्रहकर्ता है। जब हम किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के प्रति अत्यधिक लगाव कर लेते हैं, तो वह संस्कार हमारे अन्दर राग नामक क्लेश को जन्म देता है।
राग के कारण हमारे चित्त में सदैव उस व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यधिक आसक्ति बनी रहती है। जिससे चित्त में बार – बार राग का संस्कार बनता रहता है।
ठीक इसी प्रकार जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यधिक वैरभाव रखते है, तो वह संस्कार हमारे चित्त में द्वेष नामक क्लेश को जन्म देता है।
द्वेष के कारण हमारे चित्त में उस व्यक्ति या वस्तु के प्रति ईर्ष्या बढ़ती रहती है । इससे चित्त में अस्थिरता, व तनाव बढ़ता है। और द्वेष नामक क्लेश प्रबल ( मजबूत ) होता रहता है।
इस प्रकार जब चित्त में राग या द्वेष आदि क्लेशों के संस्कार उत्पन्न होते रहेंगे तो चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध कैसे हो सकता है ? और यदि चित्त की वृतियों का प्रवाह ऐसे ही चलता रहा तो समाधि की प्राप्ति नही हो सकती ।
इसलिए सूत्र में कहा गया है कि चित्त की सभी वृतियों या क्रियाकलापों का सर्वथा रुक जाना ही योग है।यह चित्त वृत्ति निरोध योग दो प्रकार का है एक सम्प्रज्ञात और दूसरा असम्प्रज्ञात ।
सम्प्रज्ञात :-
जब चित्त में रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव कम होता है। और सत्त्वगुण की प्रधानता होती है। तब यह उसकी एकाग्र अवस्था होती है। इसी अवस्था को धर्ममेघ या सम्प्रज्ञात समाधि कहते है।
असम्प्रज्ञात :-
धर्ममेघ अथवा सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने पर योगी को विवेकख्याति में भी दोष दिखाई देता है तो उसे उसमें भी वैराग्य हो जाता है। इसे परवैराग्य कहते हैं। जो कि असम्प्रज्ञात समाधि का साधन है । यह चित्त की निरुद्ध अवस्था होती है। इसमें हमारा चित्त सभी प्रकार के संस्कारों से शून्य हो जाता है । तब उसमें किसी प्रकार की कोई गतिविधि या क्रियाकलाप नही होता है।
इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का सर्वथा निरोध होने से सभी विषयों का अभाव हो जाता है। जिससे साधक असम्प्रज्ञात समाधि में स्थित हो जाता है।
‘असम्प्रज्ञात समाधि’ की प्राप्ति के बाद योगी की क्या अवस्था होती है? इसे महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में कहते है।
Very helpful, thanks sir
Comment…nice way to teach us sir thanx alott
योग की अति ऊतम परिभाषा बताई है जी भाईशाब
अति सुन्दर सर जी
gjb sir
? ॐ? * अत्यंत ही सुन्दर सटीक व्याख्या की गई है आपके द्वारा ।
बहुत ज्ञान वर्धक लाभदायक है।
हमारी ओर से आपको बहुत बहुत आभार गुरुदेव।?
Thank you very much sir.
Well defined and cleared Concept of Yoga Sutra…
Thanks Sir
Thanks sir….
Sir thank you for good explanation
Prnam Aacharya ji. .. lot of thanks to our God that we have such a Adhyapak like you sriman Aacharya ji… dhanyavad. …
very knowledgeable. please share other sutras also
Ha badiya guru ji
Very nice guru ji