वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञात।। 17 ।।

 

शब्दार्थ :-  वितर्क  ( स्थूलभूत का साक्षात्कार) विचार  ( सूक्ष्मभूत का साक्षात्कार ) आनन्द  ( सुख का साक्षात्कार ) अस्मिता  ( जीवात्मा का साक्षात्कार ) रूपानुगमात्  ( इनके सम्बन्ध से ) सम्प्रज्ञात  ( सम्प्रज्ञात समाधि होती है )

 

सूत्रार्थ :-  समाधि  के वितर्कानुगतविचारानुगतआन्नदानुगत, और अस्मितानुगत  नामक भेदों के आपसी सम्बन्ध  ( तालमेल ) से सम्प्रज्ञात समाधि  होती है ।

 

व्याख्या :-  इस सूत्र में सम्प्रज्ञात समाधि  के चार भेदों  का वर्णन किया गया है । जब हमारा चित्त अलग – अलग संस्कारों  या विचारों  को आश्रय  ( सहारा ) देता है । तब वह अलग – अलग विषयों का साक्षात्कार  ( अनुभूति ) करता है । सम्प्रज्ञात समाधि  में चित्त  की चार प्रकार की अवस्था  रहती है । इन चारों अवस्थाओं को ही सम्प्रज्ञात समाधि  के भेद कहा गया है ।

 

सम्प्रज्ञात समाधि के भेद :- सम्प्रज्ञात समाधि के निम्न चार भेद हैं –

 

  1. वितर्कानुगत समाधि
  2. विचारानुगत समाधि
  3. आन्नदानुगत समाधि
  4. अस्मितानुगत समाधि

 

  1. वितर्कानुगत समाधि :- जिस अवस्था में साधक अपने चित्त को स्थूलभूतों ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) या उनसे निर्मित पदार्थों में एकाग्र  कर लेता  है । इस प्रकार साधक स्थूलभूतों  में एकाग्रता  करके उनका साक्षात्कार  कर लेता है । चित्त की इस स्थिति को वितर्कानुगत समाधि  कहते हैं ।

 

  1. विचारानुगत समाधि :- जब साधक स्थूलभूतों का साक्षात्कार कर लेता है, तब धीरे – धीरे चित्त की सूक्ष्मभूतों ( गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ) में एकाग्रता होती है । इससे वह सूक्ष्मभूतों  का साक्षात्कार  कर लेता है । समाधि की इस स्थिति को विचारानुगत समाधि  कहते हैं ।

 

  1. आन्नदानुगत समाधि :- जब साधक द्वारा महत्तत्व, ( बुद्धि ) अहंकार, मन और इन्द्रियों  में एकाग्रता  की जाती है। तब वह आनन्द  की अनुभूति  ( साक्षात्कार ) करता है । इसमें स्थूल व सूक्ष्म दोनों का अभाव  हो जाता हैं । सत्त्वगुण  के प्रधान होने से उसको आनन्द  अथवा सुख  की अनुभूति  होती है । समाधि की इस अवस्था को आन्नदानुगत समाधि  कहते हैं ।

 

  1. अस्मितानुगत समाधि :- जब साधक अपने स्वरूप में चित्त को एकाग्र करता है । तब वह अपने वास्तविक स्वरूप  का साक्षात्कार  करता है । अपने स्वरूप का साक्षात्कार करने से साधक को अपने स्वरूप तथा अन्य पदार्थों में भिन्नता  ( अलग – अलग होने ) का ज्ञान  हो जाता है । इस  अवस्था में साधक का आनन्द अथवा सुख भी समाप्त हो जाता है । इससे वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । समाधि की इस स्थिति को अस्मितानुगत समाधि  कहते हैं ।

 

इस प्रकार साधक सम्प्रज्ञात समाधि  की अलग – अलग स्थितियों  में अलग – अलग प्रकार की अनुभुति  करता है । यें समाधि के चारों भेद आपस में एक दूसरे के सहयोगी  हैं । जैसे – पहले साधक वितर्क समाधि  में स्थूलभूतों  का साक्षात्कार  करता है । उसके बाद वह विचार समाधि  में सूक्ष्मभूतों  का साक्षात्कार  करने में सक्षम होता है । इसी प्रकार विचार समाधि  के बाद वह आनन्द समाधि  में अग्रसर  होता है । और आनन्द समाधि  के बाद अस्मिता समाधि  में दक्षता  ( सिद्धि ) प्राप्त करता है ।

 

यें सभी समाधि एक-  दूसरे की पूरक  हैं ।

Related Posts

May 6, 2018

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधिः ।। 51 ।।   शब्दार्थ :- तस्य, ( उसके ) ...

Read More

May 4, 2018

 तज्ज: संस्कारोंऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ।। 50 ।।   शब्दार्थ :- तज्ज, ( उससे उत्पन्न होने वाला ...

Read More

May 3, 2018

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।। 49 ।।   शब्दार्थ :- श्रुत, ( श्रवण अर्थात सुनने से ...

Read More

May 2, 2018

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। 48 ।।   शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. ?Prnam Aacharya ji. It’s very special to read & learn this knowledge one by one in this extended form ..thank you so much for explaining Samadi so well… Prnam Aacharya ji ?

  2. ॐ गुरुदेव*
    बहुत ही स्पष्ट ,सरल,व सारगर्भित तरीके से आपने व्याख्या की है।इससे समस्त योगी बंधु अवश्य ही ज्ञान लाभ प्राप्त करेंगे।

  3. Pranaam Sir! The stepwise explanation given by you is really a great help for us. Indeed a commendable job. Samadhi well explained.

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}