दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।। 15 ।।
शब्दार्थ :- दृष्ट , ( देखे हुए ) आनुश्रविक , ( सुने हुए ) विषय , ( उपभोग की वस्तुओं को ) वितृष्णस्य, ( प्राप्त करने की इच्छा न होना ही ) वशीकार – संज्ञा, ( पूर्ण नियंत्रण की अवस्था को ही ) वैराग्यम् ( राग का अभाव या वैराग्य कहते हैं । )
सूत्रार्थ :- जो भी देखे हुए एवं सुने हुए विषय हैं । उन सबको प्राप्त ( पाने ) करने की इच्छा का न होना । ऐसे पूर्ण रूप से वश ( नियंत्रण ) में किए गए चित्त की अवस्था ( स्थिति ) को ही वैराग्य कहते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में विषय ( वस्तु ) को दो भागों में बाँटा गया है – 1 दृष्ट , 2 आनुश्रविक ।
- दृष्ट :- दृष्ट विषय वें होते हैं जिनको हम अपनी आँखों के द्वारा देख रहे होते हैं । जैसे – रूप – रंग, धन – दौलत, स्त्री – पुरुष, सुख – सम्पन्नता , भोग – विलास आदि। इन सभी विषय – वस्तुओं को हम प्रत्यक्ष रूप से भोग ( इनका उपयोग ) रहे होते हैं।
- आनुश्रविक :- आनुश्रविक विषय वें होते हैं । जिनका ज्ञान हमें प्रत्यक्ष रूप से नही बल्कि सुनने से होता है । इनको हम महापुरुषों या वेद – शास्त्रों से सुनते हैं ।
जैसे – स्वर्ग, परमानन्द, सिद्धियाँ, दिव्य रस का पान आदि । ये सभी हमारे सामने उपलब्ध नहीं होते हैं । इनका ज्ञान हमें सुनने से ही होता है ।
वैराग्य का स्वरूप :- देखी हुई व सुनी हुई वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा न होना । ऐसे पूर्ण रूप से वश में किए गए चित्त की जो अवस्था होती है । उसे वैराग्य कहते है । अर्थात भोग की सभी देखी व सुनी जाने वाली वस्तुओं के प्रति पूर्ण से अलगाव ( लगाव रहित अवस्था ) होने को वैराग्य कहा गया है ।
जैसे – अत्यंत आकर्षक रूप ( किसी सुन्दर स्त्री या पुरूष ) को देखकर उसको प्राप्त करने की लालसा न होना । या विरासत ( पूर्वजों से प्राप्त ) में मिली धन – सम्पदा अथवा राज्य ( राज- पाट ) को भोगने ( पाने ) की इच्छा न होना ही वैराग्य है । जिस प्रकार महात्मा बुद्ध को अपने राज्य, पत्नी, व बच्चे से वैराग्य हुआ था । महात्मा बुद्ध के पिता राजा थे । परन्तु वैराग्य भाव के जाग्रत होने पर ये अपने महल और परिवार को छोड़ कर सन्यासी बन गए । तभी वह महात्मा बुद्ध कहलाए । इसे वैराग्य का दृष्ट ( देखे हुए विषय ) स्वरूप कहते हैं ।
ठीक इसी प्रकार जो आनुश्रविक ( सुने हुए विषयों ) के प्रति लालसा समाप्त होने को वैराग्य का
आनुश्रविक स्वरुप कहते हैं । जैसे – जब किसी महापुरुष या शास्त्र के द्वारा हमें पता चले कि योग साधना करने से बहुत प्रकार की सिद्धियाँ ( असीमित शक्तियाँ ) प्राप्त होती हैं । या स्वर्गलोक में जाने पर परमानन्द व दिव्य रसों की प्राप्ति होती है । इस प्रकार की दिव्य अनुभूतियों को सुनकर भी उनको प्राप्त करने की इच्छा न होना वैराग्य है ।
इस सूत्र में अपर वैराग्य के स्वरूप को बताया गया है ।
Comment…thank you sir ??
?Prnam Aacharya ji. . Thank you so much for making Pantanjali Sutra so easy with the distinct vocabulary explanation that a common person can understand so well….??
Thanks sir
Bahut hi sunder or helpful explanation h apki …..
Very nice explanation.
Sir, vitusnsya ka matalb echa n hona
Matlb echa se pre hona.
Chit ka l y ho jana, jb chit hi n hi to echa ya anicha kesi ?
Vairagya, gyan, sidhdhiya, sb chla jata he jb usme dub jate he.
Echa n hona aesa n hi , mn hi n hi rhta.
Mn hi mr jana vo hi vairagya.
Thanks. Ashok chaudhary from Gujarat
Pranaam Sir! Very simple and easy words used to explain confusing and difficult concept as vairagya.
ॐ गुरुदेव*
बहुत ही अच्छी व्याख्या की है आपने। आपको दृष्ट एवम् अदृष्ट विषयों के बारे में बताने के लिए आपका बहुत _बहुत आभार ।
Afteral all the best।
Thank you Sir
Thank you Sir
Nice example of mahatma budh guru ji and nice explanation of mahatma budh secrifies
bairaighya or prathahar same ha