वैदिक परिप्रेक्ष्य में ध्यान
डॉ० सोमवीर आर्य
ध्यान शब्द भी लगभग उतना ही प्रचलित है, जितना कि योग शब्द । इसी कारण बहुत सारे लोग ध्यान करने को ही योग समझते हैं । आज किसी से भी पूछो; कि ध्यान क्या होता है? तो उत्तर आएगा, कि किसी एकांत स्थान पर बैठकर, आँखें बन्द कर लेना ही ध्यान होता है । तो क्या कहीं पर भी एकांत स्थान देखकर अपनी आँखें बन्द कर लेने से ध्यान हो जाता है ? या फिर ध्यान लगाने के लिए हमें घर का त्याग करके गंगा के तट, हिमालय पर्वत की चोटी, जंगल या फिर गुफाओं आदि में जाना पड़ेगा? इसका सरल सा उत्तर है, कि ध्यान करने के लिए आपको घर अथवा अपना काम छोड़कर कहीं पर जाने की आवश्यकता नहीं है । आप जहां पर भी हैं, जो भी काम कर रहे हैं, उसे छोड़ने की आवश्यकता नहीं है । ध्यान के लिए तो केवल ध्यान को समझने की आवश्यकता है ।
भागदौड़ भरी जिन्दगी में ध्यान एक ऐसा आवश्यक संसाधन है, जिसका हमारी दिनचर्या में होना अति आवश्यक है । लेकिन आज तथाकथित ध्यान गुरुओं ने ध्यान को इतना घूमा दिया गया है, कि ध्यान के विषय में सुन-सुनकर चक्कर आने लगता है । इस प्रकार अत्यंत सरलता के साथ किये जाने वाले ध्यान को बहुत जटिल बना दिया गया है । जिसके कारण हम लगातार ध्यान से दूर होते जा रहे हैं ।
स्वाध्याय व सानिध्य से लगातार बढ़ती हुई दूरी इसका मुख्य कारण है । आज हमारे जीवन में दर्शनों, उपनिषदों व मोक्षदायक ग्रन्थों के स्वाध्याय और ज्ञानी महात्माओं के सानिध्य का अभाव होता जा रहा है । जिसके कारण अज्ञानी लोग ध्यान के विशेषज्ञ बन बैठे हैं । वह ध्यान के नाम पर कुछ भी रहस्यमय तरीक़ा बताने लगते हैं और हम अपनी आँख और विवेक दोनों को बन्द करके उनका अनुसरण करते रहते हैं ।
ध्यान बेहद सरल व सुगम साधना है, जिसे कभी भी, कहीं भी तथा किसी भी रूप में अपनाया जा सकता है । इस शोध पत्र के माध्यम से हम यही बताने का प्रयास करेंगे, कि किस प्रकार हम ध्यान को अपनी दिनचर्या का अंग बनाकर अपने सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं ।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता तो यही है कि उसका कोई भी कार्य असफल न हो, बल्कि सभी कार्य कुशलता पूर्वक सम्पन्न हों । लेकिन क्या ऐसा सम्भव है कि हम अपने सभी कार्यों को बिना गलती किए, पूर्ण कर सकते हैं ? इस प्रश्न के साथ ही एक सहयोगी प्रश्न यह भी उठता है, कि क्या ऐसा कोई नियम अथवा सिद्धान्त है, जो हमारे सभी कार्यों को बिना किसी दुर्घटना के पूर्ण करने में सहायक हो ? ऊपर वर्णित इन सभी प्रश्नों का एक ही प्रामाणिक उत्तर है; “ध्यान” । बिना ध्यान के किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करना असम्भव है । जिस भी स्थान पर अधिक दुर्घटनाओं की संभावनाएँ होती हैं, वहां पर एक वाक्य मुख्य रूप से अंकित किया जाता है, “सावधानी हटी-दुर्घटना घटी” । ये सावधानी ही ध्यान है ।
जब हम सावधान शब्द का सन्धि विच्छेद करते हैं, तो हमें पता चलता है कि स+ अवधान से सावधान शब्द बनता है । इसमें स का अर्थ है “सहित” और अवधान का “ध्यान” । इस प्रकार सावधान शब्द का अर्थ हुआ; जो ध्यान के साथ किया जाये” । अर्थात् जो पूर्ण मनोयोग और सावधानी के साथ किया जाये ।
सावधानी अथवा ध्यान के साथ किया जाने वाला कार्य ही सफल होता है । इसके विपरीत जिस भी कार्य को करते हुए ध्यान अथवा सावधानी नहीं रखी जाती, उस कार्य का बिगड़ना अथवा उसमें व्यवधान आना तय है । फिर चाहे वह रसोई में भोजन तैयार करना हो या सड़क पर गाड़ी चलाना । यदि रसोई में भोजन पकाते हुए सावधानी नहीं रखी गई, तो भोजन का ढंग से न पकना या हाथ का जलना तय है । इसी प्रकार यदि सड़क पर गाड़ी चलाते हुए ध्यान अथवा सावधानी नहीं रखी गई, तो सड़क पर दुर्घटना का होना तय है । इसलिए हम कह सकते हैं कि यह सावधानी ही ध्यान है । व्यक्ति को इस सावधानी का पालन करने भर की आवश्यकता है । किसी भी कार्य की सफलता में “ध्यान” का और असफलता में “ध्यान के अभाव” का ही योगदान होता है ।
ऊपर वर्णित सभी परिभाषाएँ और तर्क ध्यान के भौतिक पक्ष को दर्शाते हैं । अब हम ध्यान के आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा करेंगे, जिससे साधक समाधिस्थ होकर कैवल्य मार्ग पर अग्रसर होता है ।
ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा
योगदर्शन में ध्यान को अष्टांग योग के सातवें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है । इससे पहले के छ: अंग निम्न हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा । ध्यान हेतु इन सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है । ये सभी अंग ध्यान को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी का काम करते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा के बिना ध्यान नहीं किया जा सकता । लेकिन आज वर्तमान समय में सभी व्यक्ति सीधे ही ध्यान का अभ्यास करना चाहते हैं । इसके ऊपर विडंबना यह है कि समाज में ऐसे योग गुरुओं की भी भरमार है, जो पहले दिन ही ध्यान लगवाने का दावा करते हैं । लोगों की इच्छा और तथाकथित योग गुरुओं के भ्रामक दावों से ही ध्यान के विषय में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है । इस भ्रम की स्थिति को तोड़ने के लिए हमें शास्त्रों के अध्ययन की नितांत आवश्यकता है । शास्त्र ही वह साधन हैं, जो हमें सही और ग़लत के बीच का भेद बताते हैं । इसलिए अब हम ध्यान को जानने के लिए आगे के सभी तर्कों को शास्त्रों के अनुसार ही रखेंगे ।
ध्यान को समझने से पहले हमें धारणा को समझना पड़ेगा । धारणा को ध्यान का पूर्वाभ्यास कहते हैं । अर्थात् धारणा से ही ध्यान का उद्भव होता है । महर्षि पतंजलि ने धारणा को परिभाषित करते हुए कहा है; अपने चित्त को किसी स्थान विशेष पर केन्द्रित कर देना धारणा कहलाती है (१) । इस प्रकार चित्त की एकाग्र अवस्था को धारणा कहा गया है । जब हम अपने चित्त को किसी एक स्थान विशेष पर टिका कर एकाग्र कर देते हैं, तब वह अवस्था धारणा कहलाती है ।
महर्षि पतंजलि द्वारा बताई गई ध्यान की परिभाषा पर विचार करने पर पता चलता है कि ध्यान की अलग से तो कोई विधि बताई ही नहीं गई है । अर्थात् जहां पर धारणा की गई थी, उसी स्थान पर उस धारणा का लम्बे समय तक बिना किसी बाधा के बने रहना ही ध्यान होता है (२) । ध्यान की इस परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि ध्यान की कोई विशेष विधि का वर्णन महर्षि पतंजलि द्वारा नहीं किया गया है । उनके अनुसार धारणा का लगातार और लम्बे समय तक बने रहना ही ध्यान कहलाता है । अर्थात् धारणा ही आगे जाकर ध्यान में परिवर्तित हो जाती है । इसके लिए किसी अलग विधि के अभ्यास की आवश्यकता नहीं है ।
सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल ध्यान के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि मन का सभी विषयों से रहित हो जाना ही ध्यान है (३) । ध्यान को परिभाषित करते हुए स्कन्द उपनिषद् भी सांख्य दर्शन की परिभाषा का ही समर्थन करते हुए कहता है कि मन का विषयों से आसक्ति रहित होना ही ध्यान है (४) । वशिष्ठ संहिता में ध्यान को सभी प्राणियों में बन्धन व मोक्ष का कारण माना गया है ।
ध्यान में चित्त और मन की भूमिका
चित्त और मन हमारे अंतःकरण चतुष्टय के अंग हैं । चित्त का काम विचारों को संग्रहित रखना और उनका संचालन करना होता है । मन को उभ्यात्मक इन्द्री माना गया है, जो संकल्प और विकल्प का काम करती है । जब तक हमारा मन संकल्प- विकल्प आदि विषयों से रहित नहीं हो जाता, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है । इसी प्रकार जब तक चित्त की सभी वृत्तियाँ नहीं रुक जाती, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है ।
अब हमें इस बात का निर्णय करना पड़ेगा कि वर्तमान समय में जितनी भी प्रचलित ध्यान विधियाँ हैं, क्या वह मन को विषयों से रहित और चित्त को भाव से रहित करने में सक्षम हैं ? यदि वह ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, तो हमें पुनर्विचार की आवश्यकता है । आज हमें ध्यान के नाम पर जो रस पिलाया जा रहा है, वह ठीक वैसा ही है, जैसा कि डब्बे में बन्द फ़्लेवर और चीनी घुला हुआ जूस । जो पीने में लगता तो असली जूस के जैसा ही है, लेकिन उसमें असली वाली बात होती नहीं है । इसलिए हमें यह तय करना होगा कि हम जिस रस का पान कर रहे हैं, उसमें किसी प्रकार की मिलावट न हो । वह पूरी तरह से शुद्ध होना चाहिए ।
जब तक हम ध्यान के नाम पर लोगों को कोरी कल्पनाएँ करवाते रहेंगे, तब तक आप अभ्यास में सफलता प्राप्त नहीं कर पाओगे । ध्यान के लिए हमें यह समझना पड़ेगा कि हम ध्यान किसका करें? इसके लिए हमें धारणा को समझना होगा । धारणा मुख्य रूप से बाह्य और आंतरिक होती है । बाह्य धारणा में किसी भी बिन्दु का निर्धारण करके उसपर चित्त को एकाग्र किया जाता है और आंतरिक धारणा में अपने हृदय प्रदेश अथवा नाड़ियों में ध्यान करने का निर्देश मिलता है ।
इन दोनों धारणाओं में आंतरिक धारणा का अभ्यास अधिक उपयोगी माना गया है । हृदय प्रदेश अथवा नाड़ियों में धारणा का अभ्यास करने को आंतरिक धारणा का प्रथम चरण माना गया है । इसके बाद इस आंतरिक धारणा के अभ्यास को धीरे-धीरे हृदय और नाड़ियों से होते हुए परमात्मा तक लेकर जाना ही धारणा का लक्ष्य है ।
किसका ध्यान करें?
ध्यान के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करना चाहिए । साधक को उस अन्तर्यामी परमात्मा के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना ध्यान है (५) । इसी प्रकार ऋग्वेद कहता है कि जैसे नदी-नल आदि जल स्त्रोत समुद्र में ही समाते हैं, वैसे ही ईश्वर में ध्यान करने वाले साधक अपनी इन्द्रियों को समेटकर परमात्मा के आनंद में निमग्न हो जाते हैं (६) । इसी की पुष्टि करते हुए कहा है कि साधक को अपने मन को परमात्मा में निमग्न करके ध्यान करना चाहिए, जैसे सदा से साधक उस सर्वज्ञ और महान परमेश्वर में मन, बुद्धि और सम्पूर्ण ज्ञान को समर्पित करते आये हैं (७) । ऋग्वेद आगे कहता है कि किसी भी उपासक अथवा साधक को परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी स्तुति नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार परमात्मा की उपासना और ध्यान करने से परमात्मा अपने सामर्थ्य से साधकों की बुद्धि को अपने में युक्त कर लेता है । जिससे साधकों की आत्माओं में दिव्य प्रकाश प्रकट होता है (८) ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान योग को समझाते हुए व उसके फल को बताते हुए कहते हैं कि योगी एकान्त में रहकर अपने चित्त व आत्मा का संयमन करे, इसके अलावा अन्य किसी प्रकार की कामना का मन में विचार भी न आने दे । इसके साथ-साथ अपने अन्दर से सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने वाले भाव को त्यागकर, अपने अन्तःकरण को ध्यान में लगाने का प्रयास करे (९) ।
ध्यान के आसन की तैयारी
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान से पूर्व की तैयारियों में आसन का निर्देशन करते हुए कहते हैं कि योगाभ्यासी साधक को शुद्ध स्थान और समतल भूमि पर सबसे पहले दर्भ अर्थात् घास, मृग की छाल अथवा कम्बल आदि बिछाकर आसन लगाना चाहिए (१०) ।
इस प्रकार आसन के स्थान व आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था करने के बाद योगाभ्यासी साधक को अपने चित्त और इन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए, मन को एकाग्र करके, स्थिर होकर, पीठ, गर्दन व मस्तक को एक सीध में रखते हुए, दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर टिकाकर, अन्तःकरण को शान्त करके, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, मन को संयमित करके, मुझमें अपना चित्त लगाकर, मेरा ध्यान करते हुए मुझमें ही योगयुक्त हो जाए (११) ।
गीता में ध्यान के लिए अभ्यास एवं वैराग्य की बात कही गई है । योगी श्री कृष्ण ध्यान से पूर्व चंचल मन को नियंत्रित करने की बात करते हुए कहते हैं कि संकल्प करके अपनी सभी कामनाओं व वासनाओं को बिल्कुल त्यागकर, मन से सभी इन्द्रियों को वश में कर, धैर्य युक्त बुद्धि से धीरे – धीरे शान्त होता जाना और मन को आत्मा में स्थिर करके कुछ भी चिन्तन न करना । उपर्युक्त विधि का पालन करते हुए मन जब भी कभी बाहर जाए तो उसे वहाँ से रोककर आत्मा के ऊपर लगाए । अर्थात् आत्मा के अधीन करने का प्रयास करते रहें । इसपर अर्जुन शंका जताते हुए कहता है कि मन तो बहुत ही चंचल, बलवान तथा दृढ़ है । ऐसे मन को नियंत्रित करना तो वायु को नियंत्रण में करने के समान अत्यन्त कठिन है (१२) ।
तब अर्जुन की शंका का समाधान करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस चंचल मन को नियंत्रित करना अत्यन्त कठिन है, परन्तु फिर भी अभ्यास एवं वैराग्य से इसे नियंत्रण में किया जा सकता है (१३) ।
ध्यान से पूर्व की अनिवार्य योग्यता
आज प्रत्येक व्यक्ति ध्यानस्थ होने की इच्छा रखता है । ऐसी इच्छा होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इसके लिए साधक को कुछ योग्यता अर्जित करना आवश्यक है । क्योंकि उनके बिना ध्यान के अभ्यास में सफलता प्राप्त होना असम्भव है । यहां पर हम उन योग्यताओं की चर्चा क्रमश: करने वाले हैं-
यमों का पालन – जब तक योग साधक के व्यवहार में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन नहीं आ जाता, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है । कोई व्यक्ति यह चाहे कि मैं अपने लोभ, क्रोध और मोह के वश में आकर हिंसा, झूठ, चोरी, कामुकता और अनावश्यक विचारों का संग्रह करते हुए ही ध्यान का अभ्यास करता रहूं । तो यह सम्भव नहीं है । इसलिए साधक को ध्यान के अभ्यास में सफलता प्राप्त करने के लिए पूरी तरह से यमों का पालन करना चाहिए ।
नियमों का पालन – यमों की तरह ही साधक को ध्यानस्थ होने के लिए शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का पालन करना अनिवार्य है ।
आसन का अभ्यास – ध्यान हेतु आसन में सिद्धि प्राप्त करना बहुत आवश्यक और अनिवार्य है । बिना आसन की सिद्धि के ध्यान का अभ्यास नहीं किया जा सकता । इसके लिए साधक को किसी भी ध्यानात्मक आसन का अभ्यास करना चाहिए । जिसकी विधि का वर्णन गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है ।
प्राणायाम का अभ्यास – हठप्रदीपिका कहती है कि जब तक प्राण अनियंत्रित होकर चलता रहता है, तब तक हमारा चित्त भी चलता रहता है, लेकिन जैसे ही हम प्राण को नियंत्रित कर लेते हैं, वैसे ही हमारा चित्त भी नियंत्रण में आ जाता है (१४) । योगदर्शन भी प्राणायाम के लाभ का वर्णन करते हुए कहता है कि प्राणायाम करने से मन की धारणा शक्ति का विकास होता है (१५) । इस धारणा शक्ति से ही ध्यान का मार्ग प्रशस्त होता है । इसलिए ध्यान हेतु प्राणायाम का अभ्यास बहुत अधिक उपयोगी है ।
प्रत्याहार का अभ्यास – प्रत्याहार से साधक अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है । जो कि ध्यान के लिए सबसे अधिक आवश्यक है । जब सभी इंद्रियाँ चित्त का अनुसरण करती हैं, तभी धारणा करना सम्भव है । इसलिए बिना प्रत्याहार के धारणा सम्भव नहीं है । और बिना धारणा के ध्यान सम्भव नहीं है । इसलिए साधक का प्रत्याहार में भी निपुण होना आवश्यक है ।
इस प्रकार साधक को ध्यान से पूर्व अष्टांग योग के बहिरंग साधनों ( यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ) में दक्षता प्राप्त करना अनिवार्य है । तभी साधक धारणा के माध्यम से ध्यान में प्रणीत हो सकता है । ध्यान में सफलता प्राप्त करने का अन्य कोई शॉर्टकट नहीं है ।
ध्यान हेतु सहायक उपाय
ध्यान हेतु कुछ निम्न सहायक उपाय भी हैं, जिनका पालन करने से साधक को ध्यान में शीघ्र सफलता मिलती है ।
- चित्त प्रसादन के उपाय ( मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा )
- बाह्य प्राणायाम
- वीतराग योगियों का अनुसरण
- सात्त्विक आहार
- उचित निद्रा
ध्यान विधि
ऊपर ऋग्वेद से लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करना चाहिए । अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा का ध्यान कैसे किया जाए?
इसका उत्तर हमें योगदर्शन से ही मिलता है । योगदर्शन के समाधिपाद में ईश्वर के स्वरूप और गुणों का वर्णन बहुत सुन्दर तरीक़े से किया गया है । हमें केवल उसी का अनुसरण करना है ।
ध्यान हेतु किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर आँखों को कोमलता से बन्द करें और तीन बार ओम् शब्द का उच्चारण करें । इसके बाद तीन बार बाह्य प्राणायाम का अभ्यास करना है । प्राणायाम करने के बाद पूरी सजगता के साथ अपने प्राण को दृष्टा भाव से देखना है । जैसे ही प्राण की गति सामान्य से गहरी होना आरम्भ हो जाए, वैसे ही ईश्वर का चिन्तन प्रारम्भ कर देना चाहिए ।
ईश्वर का चिन्तन ईश्वर प्रणिधान के सूत्र के साथ आरम्भ करते हुए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखना है (१६) । इसके बाद हमें चिन्तन करना है कि वह ईश्वर सभी प्रकार के क्लेशों, कर्मों, उनके फलों और संस्कारों से रहित और सभी आत्माओं में विशेष है (१७) । उस ईश्वर के जितना ज्ञान किसी में भी नहीं है, क्योंकि वह सभी प्रकार के ज्ञान को बीज रूप में जानता है (१८) । वह ईश्वर सभी गुरुओं का गुरु है, क्योंकि वह काल की सीमा से परे है (१९) । उसका मुख्य और निज नाम ओम् है (२०) और मैं उस ओम् का उच्चारण उसके अर्थ की भावना के साथ करते हुए (२१) अपने सभी कर्मों को उस ईश्वर में समर्पित करता हूं । इसके बाद साधक को ओम् शब्द का उच्चारण अथवा स्मरण उसके अर्थ की भावना के साथ करना चाहिए । इस प्रकार उस ईश्वर का चिन्तन और ईश्वर प्रणिधान की भावना करने से ईश्वर और जीवात्मा का साक्षात्कार होता है और सभी विघ्नों का नाश होता है (२२) ।
इस विषय में यजुर्वेद भी कहता है; हे कर्म करने वाले प्राणी! ओम् नाम का स्मरण अर्थात् जप कर (२३) । मुण्डक उपनिषद् भी कहता है; यह प्रणव अर्थात् ओम् शब्द धनुष है, आत्मा बाण है, ईश्वर उस आत्मा का लक्ष्य है । इसलिए प्रमाद को त्यागकर लक्ष्य का भेदन करो । जिस प्रकार तीर अपने लक्ष्य में प्रवेश करता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी उस ब्रह्म अर्थात् ईश्वर में प्रवेश करेगी (२४) । महर्षि दयानन्द भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना विषय में लिखते है; सदा ओम् नाम का जप और उसी के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए । ऐसा करने से साधक का मन एकाग्र, प्रसन्न और ज्ञान को यथावत् प्राप्त कर लेता है, जिससे उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश और ईश्वर भक्ति बढ़ती जाती है ।
गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण मोक्ष प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि जब साधक अपनी इन्द्रियों के सभी द्वारों को संयमित करके, मन का हृदय प्रदेश में निरोध करके, अपने प्राण व मन को मस्तिष्क में स्थिर करके योग को धारण करते हुए अथवा योग साधना का आश्रय लेकर, एक अक्षर ॐ रूपी ब्रह्म का व्यावहारिक रूप से स्मरण करते हुए, अपने शरीर को छोड़ता है । अर्थात् अपनी देह को त्यागता है । वह परमगति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है (२५) ।
निष्कर्ष
ध्यान स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया है । इसके लिए हमें स्वयं को इस योग्य बनाना पड़ता है कि यह स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया हमारे साथ भी घट जाए । इसके लिए हमें सबसे पहले ध्यान के वास्तविक स्वरूप को जानना आवश्यक है । इसके बाद किसका ध्यान किया जाना चाहिए? इसका निर्धारण ज़रूरी है । फिर ध्यान से पूर्व की तैयारी और आवश्यक योग्यताएँ अर्जित करनी चाहिए । इन सभी के बाद ही ध्यान का अभ्यास सफल होता है । ध्यान की सफलता के लिए ध्यान में श्रद्धा, उसका निरन्तर और दीर्घकालीन अभ्यास होना अनिवार्य है । इस प्रकार ध्यानस्थ होकर ही एक योगी परमानन्द और परमात्मा को प्राप्त कर सकता है । कुछ लोगों को भले ही यह प्रक्रिया लम्बी और कठिन लगे, लेकिन वास्तव में यही एकमात्र मार्ग है, जिसपर चलकर ध्यानस्थ हुआ जा सकता है । इसके अतिरिक्त तो ध्यान के नाम पर लोगों को केवल भ्रमित ही किया जा सकता है ।
सन्दर्भ सूची
*निदेशक, स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केन्द्र, भारत का राजदूतावास, सूरीनाम, दक्षिणी अमेरिका । Email id- somveeracharya@gmail.com
१. देशबन्धचित्तस्य धारणा ।। यो.द ३/१
२. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। यो०द० ३/२
३. ध्यानंनिर्विषयंमन: ।। सा०द० ६/२५
४. ध्यानंनिर्विषयंमन: ।। स्कन्द०उ० ११
५. ऋग्वेद भाष्य भूमिका , उपासना विषय, पृष्ठ २६०
६. ऋग्वेद ८/९२/२२
७. ऋग्वेद ५/८१/१
८. यजुर्वेद ११/१,२
९. योगी युञ्जीत सततमात्मान रहसि स्थित: ।
एकांकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह ।। गीता ६/१०
१०. शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।। गीता ६/११
११. सयं का यशिरोग्रीवं धारयन्नचल स्थिर: । गीता ६/१३,१४
१२. चंचलं हि मन:कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृष्म् । गीता ६/३४
१३. असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । गीता ६/३५
१४. चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् ।। हठप्रदीपिका २/२ ।।
१५. धारणासु च योग्यता मनस: ।। योगदर्शन २/५३
१६. ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ योगदर्शन १/२३॥
१७. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर: ॥ योगदर्शन १/२४॥
१८. तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥ योगदर्शन १/२५॥
१९. स एष: पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात् ॥ योगदर्शन १/२६ ॥
२०. तस्य वाचक: प्रणव: ॥ योगदर्शन १/२७ ॥
२१. तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ योगदर्शन १/२८ ॥
२२. तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ योगदर्शन १/२९ ॥
२३. ओम् क्रतो स्मर ।। यजुर्वेद ४०/१५ ।।
२४. मुण्डक उपनिषद् ।। २/२/४ ।।
२५. सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। गीता ८/१२ ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। गीता ८/१३।।