ध्यान क्यों करें ?


                      डॉ० सोमवीर आर्य


 

कहाँ खोए हुए हो ? ये तुमने क्या कर दिया ? तुमने सारा काम खराब कर दिया, काम के समय पर तुम्हारा ध्यान किधर रहता है ? कभी तो कोई काम ठीक ढंग से किया करो, तुम्हें इसका ध्यान रखना चाहिए था या तुम ध्यान नहीं रख सकते क्या ?

 

ये वो वाक्य हैं, जो हमें अक्सर तब सुनाई देते हैं, जब कार्य करते हुए हमसे कोई चूक अथवा गलती हो जाती है । इसे हम ध्यान का अभाव अथवा लापरवाही भी कह सकते हैं । यदि आप चाहते हैं कि ऊपर वर्णित किसी भी वाक्य का प्रयोग आपके लिए न किया जाए, यदि आप चाहते हैं कि आपका शरीर व मन एकरूप होकर कार्य करें, यदि आप चाहते हैं कि आपके सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हों और यदि आप चाहते हैं कि आपको काम करने में आनन्द आए, तो आपको निश्चित रूप से ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।

 

भागदौड़ भरी जिन्दगी में ध्यान एक ऐसा आवश्यक संसाधन है जिसका हमारी दिनचर्या में होना अत्यन्त आवश्यक है । लेकिन कुछ तथाकथित लोगों ने ध्यान के विषय में ऐसा दुष्प्रचार किया है कि आम आदमी को यह लगने लगा कि ध्यान करना उनके बस की बात नहीं है । ध्यान तो बस सन्यास लेकर गंगा के तट, हिमालय पर्वत की चोटी, जंगल की गुफाओं में जाकर ही किया जा सकता है । यही धारणा हम सबके बीच फैली हुई है, जिसके कारण हम लगातार ध्यान से दूर होते जा रहे हैं । इसके साथ- साथ हमारे बीच में ये भ्रान्ति भी फैली हुई है कि ध्यान का अभ्यास करना अत्यन्त जटिल अथवा कठिन होता है । जबकि ध्यान एक अत्यंत सरल प्रक्रिया है ।  इसका आभास हमें तब होता है जब हम ध्यान के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करते हैं ।

 

ध्यान बेहद सरल व सुगम साधना है, जिसे कभी भी, कहीं भी तथा किसी भी रूप में किया जा सकता है । इस शोध पत्र के माध्यम से हम यही बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार ध्यान को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाकर, अपने अन्दर सभी कार्यों को कुशलता से पूरा करने की दक्षता हासिल की जा सकती है ।

 

आज प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसका कोई भी कार्य असफल न हो, बल्कि सभी कार्य कुशलता पूर्वक सम्पन्न हों । लेकिन कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जो अपने कार्यों को सफल बनाने का सही प्रयास करते हैं ? अब प्रश्न यह भी आता है कि ऐसा कौन सा नियम अथवा सिद्धान्त है जो हमारे सभी कार्यों में पूर्णता ला सकता है ? अथवा हमारे सभी कार्यों को कुशलता पूर्वक सम्पन्न करवाने में सक्षम है ? जब हम इन बातों पर विचार करते हैं तो केवल एक ही विधि, एक ही सिद्धान्त हमारे सामने आता है, जिसे हम “ध्यान” कहते हैं ।

 

 

ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा :-  ध्यान का सामान्य अर्थ है शरीर व मन की एकरूपता का बने रहना । अर्थात् जहाँ पर हम प्रत्यक्ष रूप से ( शारीरिक रूप से मौजूद होकर ) कोई काम करते हैं, वहीं, उसी समय पर मानसिक रूप से भी उपस्थित अथवा मौजूद रहना ध्यान कहलाता है । हमारे साथ घटने वाली सभी दुर्घटनाओं के पीछे यही मुख्य कारण होता है कि हम कार्य कुछ और कर रहे होते हैं और मन में सोच कुछ और रहे होते हैं ।

 

कार्य करते हुए शरीर व मन की अलग- अलग स्थिति ही हमारे कार्य को विफल बनाती है । व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक सजगता ही ध्यान कहलाती है ।

 

ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं कि जिस स्थान पर धारणा की गई हो, उस धारणा का लम्बे समय तक बने रहना ध्यान कहलाता है ।1 योगदर्शन में ध्यान को अष्टांग योग के सातवें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है । ध्यान से पूर्व के छ: अंग निम्न हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा । ध्यान हेतु इन सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है । ये सभी अंग ध्यान को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी का काम करते हैं ।

 

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान योग को समझाते हुए व उसके फल को बताते हुए कहते हैं कि योगी एकान्त में रहकर अपने चित्त व आत्मा का संयमन करे, इसके अलावा अन्य किसी भी काम्यवासना ( कामवासना ) का मन में विचार भी न आने दे तथा अपने भीतर से परिग्रह अर्थात् सांसारिक वस्तुओं पर अपने अधिकार वाले भाव को सर्वथा त्यागकर, अपने अन्तःकरण को ध्यान में स्थिर करे । 2

 

गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण ध्यान से पूर्व की तैयारी में ध्यान हेतु आसन का निर्देशन करते हुए कहते हैं कि योगाभ्यासी साधक को शुद्ध स्थान पर अपना आसन स्थित करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि वह आसन एक समतल भूमि अथवा स्थान ( ऊँची व नीची भूमि न हो ) पर हो, उसपे सबसे पहले दर्भ फिर मृग की छाल तथा उसके बाद एक कम्बल बिछाकर आसन लगाएं । 3

 

इस प्रकार के आसन पर स्थिर होकर योगाभ्यासी साधक को अपने चित्त और इन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए, मन को एकाग्र करके, स्थिर होकर पीठ, गर्दन व मस्तक को एक सीध में रखकर निश्चल करते हुए, दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर टिकाकर, शान्त अन्तःकरण करके, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करते हुए, मुझमें चित्त वाला मेरा ध्यान करते हुए योगयुक्त हो जाए । 4

 

सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल ध्यान के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि मन का पूरी तरह से निर्विषय ( सभी विषयों से मुक्त होना ) हो जाना ही ध्यान है । 5

 

ध्यान को परिभाषित करते हुए स्कन्द उपनिषद कहता है कि मन का विषयों से आसक्ति रहित होना ही ध्यान है । 6

 

वशिष्ठ संहिता के चतुर्थ अध्याय में ध्यान को वर्णित करते हुए कहा गया है कि यह ध्यान ही सभी प्राणियों में बन्धन व मोक्ष का कारण है । 7

 

महर्षि वशिष्ठ आगे ध्यान सगुण और निर्गुण प्रकारों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि स्वयं के वास्तविक स्वरूप का तत्त्वतः मन से चिन्तन करना ही ध्यान है । 8

 

गोरक्ष शतकम में ध्यान को समझाते हुए कहा है कि योगियों तथा साधकों के हृदय में अनेक प्रकार के विचार चलते रहते हैं, किन्तु जब उनका मन एक तत्त्व पर स्थिर हो जाए तो वह अवस्था ध्यान कहलाती है । 9

 

इसमें में भी ध्यान के दो प्रकारों सगुण और निर्गुण का वर्णन मिलता है । सगुण ध्यान को बताते हुए कहा है कि इसमें वस्तु के रूप, रंग व आकार जैसे भेदक तत्त्वों के आधार पर ध्यान किया जाता है । जबकि निर्गुण ध्यान भेदक तत्त्वों से रहित होता है । 10

 

गोरक्ष संहिता के अनुसार अपने चित्त में आत्म तत्त्व का चिन्तन करना ही ध्यान कहलाता है । इसमें भी ध्यान के सगुण और निर्गुण नामक भेदों का वर्णन किया गया है । स्मृ धातु से चिन्तन शब्द बना है इसलिए चित्त में चिन्तन करना ही ध्यान है । 11

 

कुछ लोग कला में सगुण ब्रह्म में तन्मय रहते हैं । 12 गोरक्ष संहिता में ध्यान से कैवल्य प्राप्ति की बात भी कही गई है । 13 इसके अतिरिक्त ध्यान योग की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ध्यान योग के समान अन्य कोई भी साधना नहीं है । बड़े से बड़ा यज्ञ भी इसके तुल्य नहीं है । जब साधक निरन्तर रूप से मन के द्वारा यथार्थ के विचार में समर्थ हो जाता है तो उसे ध्यान की अवस्था कहते हैं । 14

 

गीता के अनुसार ध्यान व उसके प्रकार :- गीता में ध्यान के लिए अभ्यास एवं वैराग्य की बात कही गई है । योगी श्री कृष्ण ध्यान से पूर्व चंचल मन को नियंत्रित करने की बात करते हुए कहते हैं कि संकल्प करके अपनी सभी कामनाओं व वासनाओं को बिल्कुल त्यागकर, मन से सभी इन्द्रियों को वश में कर, धैर्य युक्त बुद्धि से धीरे – धीरे शान्त होता जाना और मन को आत्मा में स्थिर करके कुछ भी चिन्तन न करना । उपर्युक्त विधि का पालन करते हुए मन जब भी कभी बाहर जाए तो उसे वहाँ से रोककर आत्मा के ऊपर लगाए । अर्थात् आत्मा के अधीन करने का प्रयास करते रहें ।

 

इसपर अर्जुन शंका जताते हुए कहता है कि मन तो बहुत ही चंचल, बलवान तथा दृढ़ है । ऐसे मन को नियंत्रित करना तो वायु को नियंत्रण में करने के समान अत्यन्त कठिन है । 15

 

तब अर्जुन की शंका का समाधान बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस चंचल मन को नियंत्रित करना अत्यन्त कठिन है, परन्तु फिर भी अभ्यास एवं वैराग्य से इसे नियंत्रण में किया जा सकता है । 16

 

गीता में विवेक रहित अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान को अधिक श्रेष्ठ बताया गया है । आचार्यों से प्राप्त उपदेश तथा शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान की अपेक्षा ध्यान को अधिक प्रभावशाली कहा गया है । 17

 

भगवान श्री कृष्ण ने मुक्ति के चार मार्ग बताये हैं, ध्यानयोग, सांख्य योग, निष्काम कर्म योग व भक्तियोग । इन चारों मार्गों में से किसी भी एक मार्ग पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है । 18

 

हठयोग के आचार्य घेरण्ड ऋषि अपने योग के सात अंगों में ध्यानयोग का वर्णन करते हैं । ध्यान के द्वारा वह स्वयं की आत्मा का साक्षी भाव से प्रत्यक्षीकरण करने की बात कहते हैं । 19

 

घेरण्ड ऋषि ध्यान के तीन प्रकारों स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान का वर्णन अपने ग्रन्थ में करते हैं । 20

स्थूल ध्यान को मूर्तिमय कहा गया है, ज्योतिर्ध्यान को तेज स्वरूप तथा सूक्ष्म ध्यान को बिन्दुमय ब्रह्म कहा गया है । जो कुण्डलिनी से परे देवता हैं । 21

 

ध्यान हेतु अभ्यास का महत्व :- ध्यान में बैठो ! आसन लगाओ ! अपने इष्ट देव का ध्यान करो ! अरे तुम्हारा मन इतना चंचल क्यों है ? जब तुम ध्यान में बैठो तो मन को इधर – उधर मत जाने दो ! देखने का प्रयास करो कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है !

 

हम जब कभी किसी से ध्यान सीखने का प्रयास करते हैं तो इस तरह की बातें हमें सुनने को मिलती हैं । परन्तु वास्तव में ध्यान कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है कि पहले ही दिन आप ध्यान में बैठो और ध्यान लग जाए ।

 

ध्यान लगने के लिए आपके स्वभाव में चार साधनों का होना अति आवश्यक है । जो इस प्रकार हैं – 1. धैर्य, 2. निरन्तरता, 3. श्रद्धा और 4. अभ्यास ।

 

इसको हम एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करते हैं –

इसके लिए आप एक वाहन चालक की ही लीजिए । जब भी कोई व्यक्ति वाहन चलाना सीखता है तो उसे इन साधनों की बहुत ज्यादा आवश्यकता होती है । पहले पहल वो हर चीज को बड़े ध्यान से देखता है, समझता- परखता है तथा पूरे धैर्य के साथ चलता है । जब भी वह गियर को बदलता है तो हर बार वह गियर की तरफ देखता है । साथ ही वह गाड़ी की गति को बहुत धीमी रखते हुए बड़ा सम्भल कर उसको धीरे – धीरे बढ़ाता है ।

 

हर दिन वह निरन्तरता व धैर्य के साथ अभ्यास करता है । परन्तु बीच- बीच में जब उससे कोई गलती हो जाती है तो उसे लगता है कि वह कभी भी एक कुशल चालक नहीं बन सकता कहता है । लेकिन जब वह पूरी एकाग्रता के साथ गति, गियर, स्टेयरिंग व सड़क पर ध्यान रखता है तो वह वाहन चलाने में कुशल बन जाता है ।

 

अब जैसे- जैसे उपर्युक्त साधनों का प्रयोग करते हुए वह दीर्घकाल तक इसका अभ्यास करता है तो वह निश्चित रूप से बिना गियर देखे ही कुशलता से उसे गति के अनुकूल उसे बदलता रहता है । ऐसा केवल और केवल धैर्य, निरन्तरता, श्रद्धा और अभ्यास से ही सम्भव हो पाता है ।

 

ध्यान भी ठीक ऐसी ही प्रक्रिया है जिसमें धैर्य, निरन्तरता, श्रद्धा व अभ्यास के द्वारा प्रवीणता ( निपुणता ) प्राप्त की जा सकती है ।

 

निष्कर्ष :-  यदि आप चाहते हैं कि आपके सभी कार्य समय पर पूर्ण हों, सफल हों व सिद्ध हों, यदि आप चाहते हैं कि आपको काम करते हुए आनन्द की अनुभूति हो । यदि आप चाहते हैं कि आपका जीवन शान्त व सुखद हो, यदि आप तनाव रहित होकर जीना चाहते हैं, यदि आप कोई भी गलती नहीं करना चाहते हैं, यदि आप अपने जीवन को बेहद आसान बनाना चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं कि आप सदा मुस्कराते रहें तो आपको ध्यान करना चाहिए ।

 

 

सन्दर्भ सूची

* योग विशेषज्ञ, कांसुलेट जनरल ऑफ इंडिया, अटलांटा, अमेरिका ।

  1. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। यो०द० 3/2
  2. योगी युञ्जीत सततमात्मान रहसि स्थित: ।

एकांकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह ।। गीता 6/10

  1. शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।। गीता 6/11
  2. सयं का यशिरोग्रीवं धारयन्नचल स्थिर: । गीता 6/13-14
  3. ध्यानंनिर्विषयंमन: ।। सा०द० 6/25
  4. ध्यानंनिर्विषयंमन: ।। स्कन्द०उ० 11
  5. ध्यानं सम्प्रति वस्यामिश्रृणुशक्ते समाहित: ।। व०स० 4/17
  6. ध्यानमात्मस्वरूप वेदनं मनसा भवेत् । व०स० 4/19
  7. सर्वं चिन्तासमावर्ति योगिनो हृदि वर्तते । गो०शत० 76
  8. द्विधा भवति तद्ध्यानं सगुण निर्गुण तथा । गो० शत० 77
  9. स्मृत्सेव सर्व चिन्तायां धातुरेक: प्रपद्यते । गो०स० 2/61
  10. द्विविधं भवति ध्यानं सकलं निष्कल तथा । गो०स० 2/62
  11. आकाशे यत्र शब्द: स्यात्रदाताचक्रमुच्यते । गो०स 2/73
  12. अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च । गो०स० 2/80
  13. चंचलं हि मन:कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृष्म् । गीता 6/34
  14. असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । गीता 6/35
  15. श्रेयो हि ज्ञानमश्यासाज्ज्ञानाद्द्यान विशिष्यते । गीता 12/12
  16. ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । गीता 13/24
  17. प्राणायामाल्लाघवञ्च ध्यानाव्प्रव्यक्षमात्मनि । घे०स० 1/11
  18. स्थूलं ज्योतिस्तथा सूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदुः । घे०स० 6/1
  19. मूलाधारे कुण्डलिनी भुजंगाकाररूपिणी । घे०स० 6/16

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