कफ से उत्पन्न रोग व उसका समाधान
कफकोष्ठे यदा वायुर्ग्रन्थीभूत्वावतिष्ठते ।
हृत्का सहिक्काश्वासशिर: शूलादयो रुजा: ।। 13 ।।
जायन्ते धातुवैषमयात्तदा कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ।
सम्यक् भोजनमादायोपस्पृश्य तदनन्तरम् ।। 14 ।।
कुम्भकं धारणं कुर्याद् द्वित्रिवारं विचक्षण: ।
एवं श्वासादयो रोगा: शाम्यन्ति कफपित्तजा: ।। 15 ।।
भावार्थ :- वायु के गलत दिशा में जाने से जब प्राणवायु कफ के स्थान ( हृदय से मस्तिष्क तक ) में पहुँच कर वहाँ पर रुक जाती है तो वहाँ पर वह गांठ का रूप धारण कर लेती है । जिसके परिणामस्वरूप साधक को हॄदय में दर्द, खाँसी, हिचकी, दमा ( अस्थमा ) व सिर में दर्द आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर साधक को अच्छी प्रकार से मुहँ साफ करके अच्छा अनुकूल भोजन ग्रहण करना चाहिए । उस भोजन के पचने के बाद बुद्धिमान साधक को दिन में दो से तीन बार कुम्भक अर्थात् वायु को रोकने का अभ्यास करना चाहिए । ऐसा करने पर साधक के सभी कफ व पित्त से उत्पन्न श्वास सम्बंधित ( अस्थमा, खाँसी, हिचकी, सिर दर्द व हृदय दर्द ) रोग समाप्त हो जाते हैं ।
भुक्त्वा पायससं चोष्णं क्षीरं वापि घृतप्लुतम् ।
वारुणीधारणां कृत्वा कुर्यात् सर्वाङ्गयन्त्रणम् ।। 16 ।।
भावार्थ :- साधक को घी युक्त खीर ( खीर में घी डालकर ) या गर्म दूध में घी डालकर पीना चाहिए और वारुणी धारणा ( जल तत्त्व के स्थान अर्थात् स्वाधिष्ठान चक्र पर चित्त को एकाग्र करना ) का अभ्यास करके सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए ।
एवं कुष्ठादयो रोगा: प्रणश्यन्ति न संशय: ।
नेत्रे निमील्य कुर्वीत तिमिरादि प्रणश्यति ।। 17 ।।
भावार्थ :- ऊपर वर्णित विधि का अभ्यास करने से साधक के सभी कुष्ठ ( एक प्रकार का चर्म रोग ) आदि चर्म रोग समाप्त हो जाते हैं । और यदि साधक द्वारा इसी क्रिया का अभ्यास आँखें बन्द करके किया जाए तो उसके तिमिर ( रतौन्धी ) आदि नेत्र विकार भी नष्ट हो जाते हैं ।
वेपथुर्वातरक्तं च योगिनो जायते यदा ।
यत्र यत्र रुजा बाधा तत्र वायुं विचिन्तयेत् ।। 18 ।।
भावार्थ :- जब साधक को अपने शरीर में कम्पन व अन्य वातरक्त से उत्पन्न रोग ( गठिया आदि ) के लक्षण दिखाई देने लगें । तो उसे प्राणवायु के रुकने के कारण जहाँ- जहाँ पर भी दर्द का अनुभव हो रहा है । वहीं – वहीं पर उसे प्राणवायु का चिन्तन करना चाहिए ।
पूरयित्वा तत: सम्यक् पूरकेण विचक्षण: ।
धारयित्वा यथाशक्ति नाडीयोगेन रेचयेत् ।। 19 ।।
भावार्थ :- ऊपर वर्णित वात विकारों को नष्ट करने के लिए बुद्धिमान साधक द्वारा ज्यादा से ज्यादा प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरकर उसे अपने सामर्थ्य ( ताकत ) के अनुसार अन्दर ही रोकते हुए वायु को नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा बाहर निकाल देना चाहिए अर्थात् एक प्रकार से अन्त:कुम्भक का अभ्यास करना चाहिए ।
सङ्कुच्याकर्षयेद् भूय: कूर्मवद्रेचकेन तु ।
चक्रवद् भ्रामयेद्वापि पूरयित्वा पुनः पुनः ।। 20 ।।
भावार्थ :- ऊपर वर्णित विधि का प्रयोग करने के बाद साधक को श्वास को पहले अन्दर भरना चाहिए और उसके बाद उसे बाहर निकाल कर अपने अंगों को कछुए की तरह सिकोड़ते हुए पेट को बार- बार चक्र की भाँति घुमाना चाहिए ।
विशेष :- इस श्लोक में नौलि क्रिया करने की सलाह दी गई है । यहाँ पर पेट को चक्र की भाँति घुमाने का अर्थ नौलि क्रिया ही है ।
उत्तानोऽथ समे देशे ततं कृत्वा तु विग्रहम् ।
प्राणायामं प्रकुर्वीत सर्वदोषप्रशान्तये ।। 21 ।।
भावार्थ :- साधक को दोषों ( वात, पित्त व कफ ) से उत्पन्न सभी विकारों को दूर करने के लिए समतल भूमि ( एक समान अर्थात् बीना ऊंच- नीच के ) पर कमर के बल सीधा लेटकर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए । इससे साधक के सभी रोग समाप्त हो जाते हैं ।
विशेष :- यहाँ पर प्राणायाम करते हुए सीधा लेटने की विधि का उपदेश किया गया है । इस विधि से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पर ग्रन्थकार स्वामी स्वात्माराम उज्जायी प्राणायाम करने की बात कह रहे हैं । ऐसा इसलिए सम्भव है क्योंकि पूरी हठ प्रदीपिका में एकमात्र उज्जायी प्राणायाम ही ऐसा है जिसका अभ्यास साधक खड़े होकर, बैठकर, चलते हुए या लेट कर कर सकता है ।
वैद्यशास्त्रोक्तविधिना क्रियां कुर्वीत यत्नत: ।
कुर्याद्योगचिकित्सां च सर्वरोगेषु रोगवित् ।। 22 ।।
भावार्थ :- सभी रोगों को भली प्रकार से जानने वाले चिकित्सक व आयुर्वेद के वैद्य द्वारा बताई गई चिकित्सा पद्धति द्वारा ही साधक को प्रयत्नपूर्वक अपनी चिकित्सा करनी चाहिए । साथ ही योग ग्रन्थों में वर्णित ( षट्कर्म आदि ) चिकित्सा विधि का प्रयोग करना चाहिए ।
यत्र यत्र रुजा बाधा तं देशं व्याप्य धारयेत् ।। 23 ।।
भावार्थ :- जहाँ- जहाँ पर भी प्राणवायु के रुकने से रोग उत्पन्न हुए हैं । वहीं- वहीं पर अर्थात् उसी स्थान पर साधक प्राणवायु को धारण करें । तात्पर्य यह है कि जहाँ भी वायु के रुकने से कष्ट का अनुभव होता है । वहीं पर वायु को स्थिर करके उसी का चिन्तन करना चाहिए । ऐसा करने से वहाँ स्थित वायु नष्ट हो जाएगी । जिससे वहाँ होने वाला दर्द भी समाप्त हो जाएगा ।
भीतिबाधान्तरायेषु समुत्पन्नेषु योगवित् ।
यथाशक्ति प्रयत्नेन योगाभ्यासं विवर्धयेत् ।। 24 ।।
भावार्थ :- हठप्रदीपिका के इस अन्तिम श्लोक में स्वामी स्वात्माराम ने योग साधना के नियमित अभ्यास पर बल देते हुए कहा है कि योग साधना को जानने वाले साधक को सभी प्रकार के भय, बाधाओं और अन्य प्रकार के विध्न अर्थात् योग मार्ग में उत्पन्न होने वाली अन्य बाधाओं के उत्पन्न होने पर भी प्रयत्न पूर्वक अपनी सामर्थ्यता ( किसी भी प्रकार की बाधा होने पर अपनी ताकत के अनुसार ) के अनुसार योग साधना का अभ्यास करना चाहिए ।
विशेष :- इस श्लोक में स्वामी स्वात्माराम ने योग साधना को प्रत्येक अवस्था में निरन्तरता व नियमितता के साथ करने की बात कही है । किसी प्रकार के रोग अथवा अन्य बाधा उत्पन्न होने पर भी अपने सामर्थ्य के अनुसार योगाभ्यास करना चाहिए । फिर भले ही वह अभ्यास थोड़ी मात्रा में किया जाए । लेकिन करना अवश्य है । इस श्लोक से सभी योग साधकों, विद्यार्थियों, व्यवसायी, राजनेता, किसानों, लेखकों व अन्यों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए और बिना रुके बिना थके पूरी ईमानदारी, दिलचस्पी, मनोभाव व सावधानी से अपना- अपना कार्य करना चाहिए । यह श्लोक हमें कर्मयोग की प्रेरणा देता है ।
इसी श्लोक के साथ हठयोग का यह अनुपम ग्रन्थ हठप्रदीपिका पूर्ण हुआ ।
Thank you , this is amazing to study with you you sir. During these days I feel that you are teaching us directly in the class thank you ???
धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव*
आप ने हम सभी योग जिज्ञासुओं को
देव दुर्लभ एवं अति गोपनीय योगामृत
का रसपान कराया।
आपका आभार प्रकट करने हेतु
हमारे पास शब्द नहीं हैं।
अस्तु आपको बारंबार हृदय की गहराइयों से
अभिनंदन एवं चरण वंदन करता हूं।
Prnam Aacharya ji. Aapka koti Dhanyavad. Sunder lekhan
Dhanyavad
thankuu sir .hathparidipika bhut hi saral shabdo main likhi hai…poori pari achha lga