प्रकारान्तरेण स्थूल ध्यान वर्णन

 

सहस्त्रारे महापद्मे कर्णिकायां विचिन्तयेत् ।

विलग्नसहितं पद्मं द्वादशैर्दलसंयुतम् ।। 9 ।।

शुक्लवर्णं महातेजो द्वादशैर्बीज भाषितम् ।

हसक्षमलवरयूं हसखफ्रें यथाक्रमम् ।। 10 ।।

तन्मध्ये कर्णिकायां तु अकथादि रेखात्रयम् ।

हलक्षकोणसंयुक्तं प्रणवं तत्र वर्तते ।। 11 ।।

नादबिन्दुमयं पीठं ध्यायेत्तत्र मनोहरम् ।

तत्रोपरि हंसयुग्मं पादुका तत्र वर्तते ।। 12 ।।

ध्यायेत्तत्र गुरुं देवं द्विभुजं च त्रिलोचनम् ।

श्वेताम्बरधरं देवं शुक्लगन्धानुलेपनम् ।। 13 ।।

शुक्लपुष्पमयं माल्यं रक्तशक्तिसमन्वितम् ।

एवं विधगुरुध्यानात् स्थूलध्यानं प्रसिध्यति ।। 14 ।।

 

भावार्थ :-  हजारों कमलों के बीच में बारह ( 12 ) पंखुड़ियों अथवा पत्तों से युक्त एक कमल स्थित है । योगी उसका चिन्तन करे अथवा उसका ध्यान करे ।

उस शुक्ल वर्ण व तेजोमय से युक्त कमल की बारह पंखुड़ियाँ निम्न बारह बीजअक्षरों के क्रम से सुशोभित हैं – ‘ह, ल, क्ष, म, ल, व, र, यूं, ह, स, ख व फें’

उस कर्णिका के बीच में ‘अ, क, थ’, आदि से बनी हुई तीन रेखाएं हैं । जो ‘ह, ल, क्ष’, वर्णों से युक्त अर्थात् से बना हुआ त्रिकोण है । जहाँ पर ओंकार अथवा प्रणव स्थित है ।

वहाँ पर नादबिन्दु से युक्त मनमोहक पीठ का ध्यान करे । जिसके ऊपर ‘हंस’ युग्मों से युक्त पादुका स्थित है ।

वहीं पर दो भुजाओं व तीन नेत्रों ( आँखों ) वाले गुरुदेव विराजमान हैं । जिन्होंने श्वेत अर्थात् सफेद कपड़े पहने हैं और शरीर पर अच्छी सुगन्ध प्रदान करने वाले पदार्थों का लेप किया हुआ है । ऐसे गुरुदेव का ध्यान करना चाहिए ।

वह गुरु सफेद फूलों की माला पहने हुए हैं और जो लाल वर्ण की शक्ति से सम्पन्न हैं । ऐसे गुरुदेव का ध्यान करने से स्थूल ध्यान की विधि से साधक को सिद्धि की प्राप्ति होती है।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित सभी श्लोक आवश्यक हैं । अतः सभी को ध्यानपूर्वक पढ़ें ।

 

 

ज्योतिध्यान वर्णन

 

कथितं स्थूलध्यानं तु तेजोध्यानं श्रृणुष्व मे ।

यद्धयानेन योग सिद्धिरात्मप्रत्यक्षमेव ।। 15 ।।

 

भावार्थ :-  स्थूल ध्यान का वर्णन करने के बाद अब ज्योति ध्यान का वर्णन सुनो, जिसका ध्यान करने से साधक को स्वयं का प्रत्यक्षीकरण होता है साथ ही योग में सिद्धि भी प्राप्त होती है ।

 

 

ज्योतिध्यान विधि

 

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजगाकाररूपिणि ।

जीवात्मा तिष्ठति तत्र प्रदीपकलिकाकृति: ।

ध्यायेत्तेजोमयं ब्रह्म तेजोध्यानं परात्परम् ।। 16 ।।

 

भावार्थ :-  हमारे मूलाधार चक्र में सर्प की आकृति वाली कुण्डलिनी शक्ति विराजमान है । वहीं पर दीपक की लौ के समान जीवात्मा का भी निवास ( विद्यमान ) है । वहाँ पर प्रकाश स्वरूप ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए । इस तेजोमय ध्यान को श्रेष्ठ ध्यान कहा गया है ।

 

 

विशेष :-  कुण्डलिनी शक्ति का निवास स्थान कहा बताया गया है ? उत्तर मूलाधार चक्र में । कुण्डलिनी किस रूप में विराजमान है ? उत्तर कुण्डली मारे हुए सर्प ( सांप ) के रूप में ।

 

 

प्रकारान्तरेण ज्योतिध्यान

 

भ्रुवोंर्मध्ये मनोर्ध्वे च यत्तेज: प्रणवात्मकम् ।

ध्यायेत् ज्वालावतीयुक्तं तेजोध्यानं तदेव हि ।। 17 ।।

 

भावार्थ :-  दोनों भौहों के बीच में और मन से ऊपर जो प्रणव रूपी तेज ( ओंकार ) है । वहाँ पर अनन्त ज्वालाओं से परिपूर्ण ( युक्त ) जो तेजोमय ध्यान है । उसका ध्यान करना भी ज्योति ध्यान कहलाता है ।

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