श्रीभगवानुवाच सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्‍क्षिणः ।। 52 ।। नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ।। 53 ।।       व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – तुमने जो मेरे इस अति दुर्लभ स्वरूप को देखा है, देवता भी सदा

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [52-55]

मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌ । व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। 49 ।।       व्याख्या :-  मेरे इस अत्यन्त विकराल स्वरूप को देखकर न तो तुम्हें व्याकुलता होनी चाहिए और न ही मूढ़ता, तुम भय से मुक्त होकर प्रसन्न मन के साथ पुनः ( दोबारा ) मेरे उसी

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [49-51]

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ।। 45 ।।       व्याख्या :-  हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आपके पहले कभी भी न देखे हुए इस विराट स्वरूप को देखकर मैं हर्षित ( खुश ) भी हूँ और साथ ही मेरा मन भय से

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [45-48]

अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से क्षमा याचना   सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।। 41 ।। यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ।। 42 ।।     व्याख्या :-  हे अच्युत ! ( कृष्ण ) आपकी इस अपार महिमा को न जानते हुए ( अनजाने

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [41-44]

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे । अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌ ।। 37 ।। त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।। 38 ।।       व्याख्या :-  हे महात्मन् ! आप ही ब्रह्मा के आदिकारण ( उत्पत्ति का मूल ) व सबसे

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [37-40]

श्रीभगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।। 32 ।।     व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – मैं यहाँ पर सभी लोकों को नष्ट करने के लिए विकराल रूप धारण किया हुआ महाकाल हूँ, जो सभी लोकों का संहार करने के लिए ही प्रवृत्त हुआ हूँ ।

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [32-36]

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ।। 28 ।।       व्याख्या :-  जैसे अनेक बड़ी- बड़ी नदियों के प्रवाह बिना विलम्ब किये शीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य लोक के ये वीर योद्धा आपके प्रज्वलित मुखों में शीघ्रता से प्रवेश कर रहे हैं

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Bhagwad Geeta Ch. 11 [28-31]