अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ।। 10 ।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  योगेश्वर श्रीकृष्ण का वह दिव्य स्वरूप अनेक मुख और नेत्रों वाला, अनेक अद्भुत दर्शनों वाला, अनेक दिव्य आभूषणों अथवा अलंकारों वाला, अनेक दिव्य अस्त्रों वाला-

 

दिव्य माला और वस्त्रों वाला, दिव्य सुगन्धित लेपों वाला, सभी आश्चर्यों वाला व  सभी दिशाओं की ओर मुख रखने वाला तथा अनन्त स्वरूप वाला था अर्थात् अनन्त स्वरूप से युक्त था ।

 

 

 

हजारों सूर्यों का प्रकाश = महापुरुष के शरीर का प्रकाश

 

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ।। 12 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  यदि आकाश में हजारों सूर्यों का प्रकाश एक साथ प्रकाशित हो उठे, तो वह प्रकाश शायद ही उस महापुरुष ( भगवान् श्रीकृष्ण ) के शरीर के प्रकाश के बराबर हो पाये ।

 

 

 

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।। 13 ।।

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार पाण्डव पुत्र अर्जुन ! ने अनेक भागों में विभक्त हुए उस सम्पूर्ण जगत् को भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में एक ही स्थान पर स्थित अथवा सिमटा हुआ देखा ।

 

 

 

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ।। 14 ।।

 

 

व्याख्या :-  तब रोमांचित व आश्चर्यचकित हुए अर्जुन ने भक्ति भाव से अपना सिर झुकाकर एवं हाथ जोड़कर उस देवता को प्रणाम करते हुए कहा –

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