अर्जुन उवाच


पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्‍घान्‌ ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्‌ ।। 15 ।।

 

 

 

व्याख्या :- हे देव ! मैं आपके इस दिव्य शरीर में सभी देवताओं को, सभी प्राणियों के विशिष्ट समूह को, कमल के आसन पर बैठे सभी देवताओं के स्वामी ब्रह्मा को, सभी ऋषियों को और सभी दिव्य सर्पवंशियों को देख रहा हूँ ।

 

 

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्‌ ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ।। 16 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामी ! मैं आपके अनेक भुजा, अनेक पेट, अनेक मुख, अनेक नेत्र व अनेक रूपों को चारों ओर देख रहा हूँ, लेकिन मुझे कहीं भी तुम्हारा आदि ( प्रारम्भ ), मध्य ( बीच ), और अन्त ( अन्तिम छोर ) दिखाई नहीं दे रहा है ।

 

 

 

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌ ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ ।। 17 ।।

 

 

व्याख्या :-  मैं आपको मुकुट, गदा और चक्र को धारण किये हुए, चारों दिशाओं में प्रकाशित तेजपुंज, प्रचण्ड अग्नि तथा सूर्य की भाँति प्रकाशवान, सामान्य रूप से न दिखाई देने वाले आपके अतुल्य स्वरूप को ही देख रहा हूँ ।

 

 

 

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ।। 18 ।।

 


व्याख्या :-  आप ही जानने योग्य श्रेष्ठ अक्षर रूपी अविनाशी ब्रह्मा हो, आप ही इस पूरे विश्व को धारण करने वाले आधार हो, आप ही पूर्ण रूप से विकार रहित हो और आप ही इस सनातन धर्म के संरक्षक हो । मुझे ऐसा लगता है कि आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं ।

 


अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌ ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्‌ ।। 19 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  मैं आपके ऐसे दिव्य स्वरूप को देख रहा हूँ, जहाँ आपका न कोई आदि है, न कोई मध्य और न ही कोई अन्त है, आप अनन्त बल व सामर्थ्य से युक्त हैं, आप अनेक भुजाओं से युक्त हैं, आपके नेत्र सूर्य और चन्द्रमा से युक्त हैं, आपका मुख दीप्तिमान अग्नि वाला है, जो इस पूरे संसार को तपा रहा है ।

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