पाँचवा अध्याय ( कुम्भक / प्राणायाम वर्णन ) पाँचवें अध्याय में मुख्य रूप से आठ प्रकार के प्राणायामों ( कुम्भकों ) की चर्चा की गई है । प्राणायाम का अभ्यास करने से साधक के शरीर में लघुता अर्थात् हल्कापन आता है । इस अध्याय में प्राणायाम के अतिरिक्त अन्य कई विषयों पर भी प्रकाश डाला

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Gheranda Samhita Ch. 5 [1-7]

योगाभ्यास के लिए वर्जित काल समय     हेमन्ते शिशिरे ग्रीष्मे वर्षायां च ऋतौ तथा । योगारम्भं न कुर्वीत कृते योगो हि रोगाद: ।। 8 ।।   भावार्थ :-  साधक को हेमन्त, शिशिर, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं में योग साधना का अभ्यास शुरू नहीं करना चाहिए । इन ऋतुओं में अभ्यास करने पर रोग होने

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Gheranda Samhita Ch. 5 [8-15]

मिताहार की उपयोगिता   मिताहारं विना यस्तु योगारम्भं तु कारयेत् । नानारोगो भवेत्तस्य किञ्चिद्योगो न सिद्धयति ।। 16 ।।   भावार्थ :- जो साधक बिना मिताहार का पालन किये ही योगाभ्यास को शुरू कर देता है । उसे अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं साथ ही उसे योग में नाममात्र सिद्धि भी नहीं मिलती

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Gheranda Samhita Ch. 5 [16-26]

योगी के लिए खाद्य ( खाने योग्य ) पदार्थ   एलाजातिलवङ्गं च पौरुषं जम्बु जाम्बुलम् । हरीतकीं च खर्जूरं योगी भक्षणमाचरेत् ।। 27 ।। लघुपाकं प्रियं स्निग्धं तथा धातुप्रपोषणम् । मनोऽभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत् ।। 28 ।।   भावार्थ :-  इलायची, लौंग, पका हुआ फालसा, जामुन, जाम्बुल ( जामुन का मोटा रूप अर्थात् जमोया ),

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Gheranda Samhita Ch. 5 [27-31]

नाड़ी शुद्धि वर्णन   कुशासने मृगाजिने व्याघ्राजिने च कम्बले । स्थलासने समासीन: प्राङ्मुखो वाप्युदङ्मुख: । नाड़ीशुद्धिं समासाद्य प्राणायामं समभ्यसेत् ।। 32 ।।   भावार्थ :-  प्राणायाम का अभ्यास करने से पहले योगी को नाड़ीशुद्धि का अभ्यास करना चाहिए । इसके लिए उपयुक्त आसन ( बैठने के स्थान ) बताते हुए कहा है कि साधक को

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Gheranda Samhita Ch. 5 [32-44]

कुम्भक ( प्राणायाम ) वर्णन   सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा । भस्त्रिका भ्रामरी मूर्छा केवली चाष्टकुम्भिका: ।। 45 ।।   भावार्थ :-  सहित, सूर्यभेदी, उज्जायी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा व केवली ये आठ प्रकार के कुम्भक अर्थात् प्राणायाम कहे गए हैं ।     विशेष :-  इस श्लोक में घेरण्ड संहिता में वर्णित आठ

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Gheranda Samhita Ch. 5 [45-51]

प्राणायाम के समय किन- किन अँगुलियों का प्रयोग करें ?   अनुलोमविलोमेन वारं वारं च साधयेत् । पूरकान्ते कुम्भकांते धृतनासापुटद्वयम् । कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठै: तर्जनीमध्यमे विना ।। 52 ।। भावार्थ :-  अनुलोम – विलोम अर्थात् बायीं और दायीं नासिका से इस श्वसन प्रक्रिया को बार- बार करना चाहिए । ऐसा करते हुए प्राण को शरीर में भरते

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Gheranda Samhita Ch. 5 [52-56]