त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ।। 20 ।।

 

 

व्याख्या :-  तीनों वेदों को जानने वाले, सोम रस पीने वाले और निष्पापी (सदा पुण्य कर्म करने वाले ) लोग यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग आदि को प्राप्त करने के लिए मेरी प्रार्थना करते हैं । मुझे पूजने वाले वह पुण्य आत्मा अपने पुण्य फलों के परिणामस्वरूप स्वर्गादि लोकों में जाकर अनेक प्रकार के दिव्य भोगों ( देवताओं द्वारा भोगे जाने वाले भोग ) को भोगते हैं ।

 

 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ।। 21 ।।

 

 

व्याख्या :-  जब पुण्य कर्मों के फल कमजोर अथवा पूरे हो जाते हैं, तब वह स्वर्गादि लोकों का सुख भोगने वाले पुण्यात्मा पुनः इस मृत्युलोक ( पृथ्वी ) पर जन्म लेते हैं । इस प्रकार तीनों वेदों के धर्म का पालन करने वाले व सुख- भोगों की इच्छा रखने वाले पुरुषों का इस मृत्युलोक में आना- जाना लगा ही रहता है अर्थात् वह जन्म- मरण के चक्र में ही उलझे रहते हैं ।

 

 

 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ।। 22 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो भी भक्त अनन्य भक्ति भाव से मुझपर ही आश्रित होकर नित्य रूप से मेरी उपासना करते हैं, उन सभी योगयुक्त भक्तों के सभी अभावों अथवा आवश्यकताओं को मैं ही पूरा करता हूँ ।

 

 

 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ।। 23 ।।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।। 24 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे कौन्तेय ! जो भक्त श्रद्धाभाव से युक्त होकर अन्य देवताओं की पूजा- उपासना करते हैं, भले ही उनकी उपासना पद्धति विधिपूर्वक अथवा सही न हो, लेकिन अंततः उन देवताओं के माध्यम से भी वह मेरी ही उपासना अथवा मेरा ही यजन करते हैं ।

 

 

क्योंकि मैं ही सभी यज्ञों को भोगने वाला और उनका स्वामी हूँ, किन्तु वह भक्त मेरे इस परमतत्त्व को न जानने के कारण मुझे छोड़कर अन्य देवताओं का यजन करते हैं, इसीलिए वह सभी अपने लक्ष्य से भटककर यहीं जीवन – मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं ।

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