समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।
व्याख्या :- मैं सभी प्राणियों को समान भाव से देखता हूँ । मुझे न तो किसी प्राणी से द्वेष है और न ही किसी प्राणी से प्रेम है । जो भी भक्त मुझे अनन्य भक्तिभाव से भजते हैं, वे भक्त मुझमें और मैं उनमें हूँ अर्थात् ऐसे भक्त मुझमें और मैं उनमें सहज रूप से प्रकट होते हैं ।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।
व्याख्या :- यदि कोई अति दुष्ट अथवा दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है, तो वह दुष्ट अथवा दुराचारी व्यक्ति भी साधु के समान ही हो जाता है, क्योंकि उसकी बुद्धि द्वारा यह निर्धारित कर लिया गया है कि मेरा भजन करने के अतिरिक्त दूसरा कोई कार्य महत्वपूर्ण नहीं है ।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।। 31 ।।
व्याख्या :- अनन्य भक्ति भाव से मेरा भजन करने वाला वह दुष्ट अथवा दुराचारी मनुष्य अति शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और अनन्त शान्ति प्राप्त करता है । हे कौन्तेय ! तुम इस बात को अच्छी प्रकार से सुनिश्चित करलो कि मेरा भक्त कभी भी नष्ट नहीं होता है ।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।। 32 ।।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।। 33 ।।
व्याख्या :- हे अर्जुन ! स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र तथा अन्य निम्न अथवा पाप योनि समझे जाने वाले सभी जन मेरा आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त करते हैं ।
जब यही लोग परमगति को प्राप्त कर लेते हैं, तो फिर उन पुण्यवान् ब्राह्मणों व राज ऋषियों का तो कहना ही क्या है, जो निरन्तर मुझे ही भजते रहते हैं । इसलिए इस दुःख रूपी नश्वर लोक अर्थात् इस दुःख देने वाले मृत्युलोक को पाकर तुम केवल मेरा ही भजन अथवा उपासना करो ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ।। 34 ।।
व्याख्या :- मुझे प्राप्त करने के लिए तुम मुझमें अपना मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही यजन अर्थात् मेरी ही पूजा करो, मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम मेरे प्रति समर्पित भाव रखते हुए मुझमें ही अपना आत्मसमर्पण करदो, ऐसा करने पर तुम निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करोगे ।
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