ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। 15 ।।
व्याख्या :- अन्य भक्तों के अलावा ज्ञानी योगी भी मेरी पूजा- उपासना करते हैं, इस विश्व में कुछ भक्त एक तत्त्व रूप में ( अभेद रूप में अथवा एक रूप में ) ही मेरी उपासना करते हैं अथवा मुझे भजते हैं, तो वहीं कुछ भक्त अलग – अलग रूपों में मेरी उपासना करते हैं ।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।। 16 ।।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ।। 17 ।।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ।। 18 ।।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ।। 19 ।।
व्याख्या :- मैं क्रतु ( वैदिक यज्ञ ) भी हूँ, यज्ञ ( सामान्य यज्ञ ) भी हूँ, स्वधा ( श्रद्धा से दान किया हुआ अन्न ) भी हूँ, औषधी भी हूँ, मन्त्र भी हूँ, घी भी हूँ, अग्नि भी हूँ और हवन भी मैं ही हूँ –
इस सम्पूर्ण जगत् ( विश्व ) का पिता भी मैं हूँ, माता भी मैं हूँ, धाता ( धारण अथवा कर्मफल देने वाला ) भी मैं हूँ, पितामह ( दादा ) भी मैं हूँ, जानने योग्य भी मैं हूँ, सबको पवित्र करने वाला भी मैं हूँ, ओंकार भी मैं हूँ, वेदों में ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ –
सबको गति प्रदान करवाने वाला भी मैं हूँ, प्रभु भी मैं हूँ, साक्षी ( सबको देखने वाला ) भी मैं हूँ, सबको आश्रय देने वाला भी मैं हूँ, सबका उपकार अथवा भला करने वाला भी मैं हूँ, सबकी उत्पत्ति करने वाला भी मैं हूँ, सबको नष्ट करने वाला भी मैं हूँ, सबको स्थित करने वाला भी मैं हूँ, निधान भी मैं हूँ और सभी पदार्थों का अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ –
हे अर्जुन ! गर्मी प्रदान करने वाला सूर्य भी मैं हूँ, वर्षा के लिए जल का निग्रह भी मैं ही करता हूँ और उस जल को बारिश के रूप में बरसाता भी मैं ही हूँ, सभी जीवों में जीवन भी मैं हूँ और मृत्यु भी मैं ही हूँ, व सत्य भी मैं हूँ और असत्य भी मैं ही हूँ ।
विशेष :- उपर्युक्त श्लोकों में ईश्वर ने अपने विभिन्न स्वरूपों का वर्णन किया है । ये सभी श्लोक परीक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं ।