अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।। 11 ।।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।। 12 ।।
व्याख्या :- अज्ञानी लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के ईश्वर वाले वास्तविक स्वरूप को न जानकर, मुझे सामान्य शरीर वाला मनुष्य समझकर मेरी अवहेलना करते हैं ।
ऐसे लोगों की सभी कामनाएँ, कर्म व ज्ञान व्यर्थ अथवा निष्फल हो जाते हैं । इस प्रकार वह विवेकहीन लोग मूढ़ता का आश्रय लेने वाली राक्षसी व आसुरी प्रवृति वाले बन जाते हैं ।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम् ।। 13 ।।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ।। 14 ।।
व्याख्या :- लेकिन हे पार्थ ! दैवी प्रकृति अथवा स्वभाव का आश्रय लेने वाले महात्मा लोग मुझे सभी प्राणियों का अव्यक्त ( जिससे प्राणी आदि व्यक्त अथवा दिखने वाले प्राणियों की उत्पत्ति होती है ) स्वरूप समझकर, अनन्य भाव से परिपूर्ण होकर हृदय से मेरा भजन करते हैं ।
ऐसे महात्मा लोग योगयुक्त होकर पूरे प्रयास व दृढ़भाव से मुझे नमस्कार करते हुए निरन्तर भक्ति भावना से मेरी उपासना व मेरे नाम का कीर्तन करते हैं ।