नौवां अध्याय ( राजविद्या- राजगुह्ययोग )
इस अध्याय में कुल चौतीस ( 34 ) श्लोकों के द्वारा राजगुह्य योग विद्या का वर्णन किया गया है ।
राजगुह्य योग की उपयोगिता को बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस योग को जानने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है । इसे सभी विद्याओं का राजा भी कहा गया है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो राक्षसी अथवा आसुरी प्रवृति के लोग होते हैं, वह कभी भी मेरे स्वरूप को नहीं जान पाते हैं । इसके विपरीत जो दैवीय सम्पदा से युक्त लोग होते हैं, वह हृदय से मेरा भजन करते हुए सदा मुझे ही प्राप्त करते हैं ।
इसी अध्याय में सकाम व निष्काम भक्तों के बारे में भी बताया गया है । अध्याय के अन्तिम श्लोकों में ईश्वर प्रणिधान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि हे कौन्तेय ! तू जो करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, दान देता है और तप करता है, वह सब तू मुझे अर्पित करदे । इस प्रकार सभी शुभ व अशुभ कर्मों का मुझमे अर्पण करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा अर्थात् मुक्त हो जाएगा । योगदर्शन में भी इसी प्रकार ईश्वर प्रणिधान नामक योग साधना का वर्णन किया गया है ।
श्रीभगवानुवाच
राजविद्या- राजगुह्य योग की विशेषताएँ
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। 1 ।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।। 2 ।।
व्याख्या :- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन ! क्योंकि तुम्हारी दृष्टि अब दोष रहित हो चुकी है अर्थात् चूंकि तुम अब दोष रहित हो चुके हो, इसलिए मैं तुम्हें गूढ़ से भी गूढ़ ( उच्च से भी उच्च ) ज्ञान को विज्ञान सहित बताऊँगा, जिसको जानने के बाद तुम सभी अशुभ कर्मों अथवा पापों से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे ।
यह विज्ञान से युक्त ज्ञान ( राजविद्या ) सभी विद्याओं में सबसे ज्यादा गोपनीय और श्रेष्ठ है । यह ज्ञान अति पवित्र ( जिसमें लेश मात्र भी दोष न हो ), अति उत्तम, प्रत्यक्ष रूप से समझ में आने वाला अर्थात् सीधे तौर पर समझ आने वाला, धर्म से युक्त, सुखपूर्वक पालन करने योग्य तथा अविनाशी ( जिसका कभी नाश नहीं होता ) है ।
विशेष :- परीक्षा उपयोगी आवश्यक प्रश्न :-
- किस ज्ञान को अति गूढ़ रहस्य वाला बताया गया है ? जिसका उत्तर है – राजविद्या- राजगुह्य योग को ।
- इस राजविद्या- राजगुह्य योग को किन- किन विशेषताओं वाला ज्ञान कहा गया है ? जिसका उत्तर है – समस्त विद्याओं का राजा अथवा ज्ञानों में सबसे श्रेष्ठ, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलदायी, धर्म युक्त, सुखकारी व अविनाशी ।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।। 3 ।।
व्याख्या :- हे परन्तप अर्जुन ! जो पुरुष धर्म से युक्त इस राजविद्या- राजगुह्य योग ( विज्ञान से युक्त ज्ञान ) के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रखते, वह मुझे न पाकर इस मृत्यु रूपी संसार में ही वापिस आते रहते हैं अर्थात् उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं होती, जिसके कारण वह पुनर्जन्म लेकर फिर से इसी मृत्युलोक में लौट आते हैं ।